बुधवार, 31 दिसंबर 2008

सेक्सी सेन्सेक्स

ड़ा० चाहे वह शरीर विज्ञान के हों या अर्थ के भांति-भांति की सलाह दिया करते हैं। चिकित्सक जहाँ सुरक्षित ‘सेक्स’को सेहत के लिए मुफ़ीद बताते हैं तो अर्थशास्त्री ‘सेन्सेक्स’के साथ सुरक्षित ‘सेक्स’ जेब के लिए। अब यह सेन्सुअलिटी होती बड़ी आकर्षक है,विश्वामित्र तक को नहीं छोड़ा ! कहते हैं यह ‘सेन’ लोगों के लिए है किन्तु साथ ही कहते है कि कच्ची उमर के लड़्के जैसे लड़्कियों को स्कूल तक पहुँचानें जाते है वैसे ही भोर होनें से लेकर रात में सोंने तक ‘ट्रैकिंग’करते रहो। पहले ड़ाओजोंस फिर नास्ड़ेक्स फिर निक्की फिर एन.एस.ई.फिर बी.एस.ई. और न जानें कौन कौन सी गलियों में घूमते रहो, ‘फुरसतिया’ जी की अदा में कहें तो ‘बोले तो ख़यालों मे प्रेमिका के साथ बतियानें जइसा कुछ है’। हाँ यह गाना जरूर याद कर लीजिए वक्त पड़नें पर काम आयेगा‘‘ये जो मोहब्बत है,ये उनका है काम,महबूब का जो बस लेते हुए नाम,मर जाँए मिट जाँए हों जाँए बदनाम.........”।

पहिले जैसे फिल्म,उपन्यास या कार्टून का हीरो (हमरे पिता जी के जमानें के हीरोअन मा देवानंद यहि मा फेमस हुई गये) लड़्कियों के स्कुल के आसपास कोई बिजली का खम्भा तलाश कर और हाथ में कोई मैगज़ीन या अखबार चाँप कर खम्भस्थ हो जाता था कि कब उनकी चहेती आये या निकले तो दर्शियाँए या पिछिआँये। तो वैसे ही भुराहरे से रिमोट हाथ में थाम टी०वी० में आँख गड़ाये बैठे हैं। कभी एन०डी०टी०वी० प्रफिट तो कभी सी०एन०बी०सी०और न जानें कौन कौन से चैनल पलट रहे हैं पूँछो काहे तो मुशकिल से बक्कुर फूटेगा कि मार्केट असेस कर रहे हैं। ९.३० बजते ही ब्रोकर से फुनियाना चालू १०० ले लो २०० बेंच दो।कुछ बीमार तो स्टाक एक्सचेन्ज़ की बिल्ड़िग के बाहर लटके बोर्ड़ को ही ताका करते हैं,अन्दर जो भरती हैं वो तो हैं ही।

मेरे एक मित्र हैं चार मोबाइल साथ लेकर चलते हैं,एक बार ७-८ घंटे साथ रहना हुआ।थोड़ी-थोड़ी देर में वह कमरे से बाहर चले जाते थे तो मैनें टोंका कि भाई शुगर टेस्ट कराओ तो गुर्रा कर बोले क्यों? मैने कहा कि हर १०-१५ मिनट में लघुशंका के लिए जाते हो,इससे लगता है कि कुछ शुगर ऊगर की बीमारी हो गयी है। रावण की तरह टहाका लगाते हुए कहा कि यार!बिल्कुल घामड़हे हो,बुरा मानते हुए मैंनें पूँछा क्यों? अबे अब तक २०,०००हजार कमा चुका हूँ तू गिनता रहे लघुशंका। लेकिन मार्च के बाद से जब से मुट्ठी में बन्द रेत की तरह शेयर मार्केट फिसल रहा है, उन्हें वास्तव में न केवल शुगर होगयी है वरन्‌ ब्लड़ प्रेशर भी बीच बीच में जोर मारनें लगता है।डा०कहते हैं कि ब्लड़्प्रेशर की दवा रेगुलर खानीं पड़ेगी,मित्र का कहना है कि जब ‘सेन्सेक्स’ का ब्लड़प्रेशर हाई होगा तभी उनका प्रेशर लो होगा। शुगर होंने की बात को बकवास बताते हुए वह कहते हैं कि अब जब ‘चीनी’ भी ‘कम’ मीठी लगती है तो शुगर कहाँ से हो जायेगी?

उन मित्र की यह गत देख मुझे मेरा ‘मैं’ याद आया और मैं सोंचनें लगा.......।धन से धन बनानें की विधा न तो उचित है और न ही तर्क संगत। धन की अतिव्याप्ति व्यक्ति को जहाँ एक ओर असुरक्षित बनाती है वहीं भ्रष्टाचरण के लिए उकसाती है और अन्ततः मानवता से दूर ले जाती है। पूंजी,बुद्धि एवं यन्त्रों के माध्यम से प्राकृतिक संसाधनों के सीमित भंण्डारों का अन्धाधुन्ध दोहन और तद्‍जन्य धन सम्पत्ति पर एकाधिकार जहाँ मनुष्य,समाज और देशों के मध्य कलह और युद्धों का कारण बनता है वहीं दूसरी ओर स्वयं और सन्ततियों को काहिल और पौरुषहीन भी बना देता है। धन से धन बनानें मे माहिर पहले ‘प्राड्क्ट’ बेंचते हैं फिर ‘मशीन’ और अन्ततः ‘फार्मूले’ और यह कार्य भी वह पूँजी के बल पर दूसरों से करवाते हैं परिणामतः स्वयं की सन्ततियाँ श्रमहीन,भयग्रस्त,रोगग्रस्त,षणयन्त्रकारी और दूष्ट हो जाती हैं और समस्त अर्जित गौरव को नष्ट कर दरिद्रता को प्राप्त होती हैं। मध्यकाल में सोनें की चिड़िया कहा जानें वाला भारत और वर्तमान में अमेरिका सहित समस्त यूरोपियन देश क्या उस अभिशाप से ग्रस्त हुए नहीं दिख रहे हैं?

जब जब पूंजीवाद धूल धूसरित हुआ दिखायी देगा तो उसका जुड़्वाँ भाई समाजवाद अपनीं पीठ थपथपानें लगेगा कि देखो मैं कह न रहा था,कि ये शोषण का मार्ग है और अन्ततः परास्त होगा। बहुत लोग मार्क्स और उनकी ‘कैपिटल’की दुन्दुभी बजानें लगते हैं। जबकि श्रम,श्रमिक एवं श्रम के वाज़िब मूल्य का उद्योग और पूंजी से चोली दामन का समबन्ध है। पूंजी के बिना श्रम और श्रम के बिना पूंजी का न कोई मूल्य होता है और न ही अस्तित्व। रूस के पतन और चीन के साम्यवाद से ‘यूटर्न’ से साम्यवाद की असलियत पहिले ही सामनें आचुकी थी,अब अमेरिका के मुँहभरा गिरनें के बाद पूंजीवाद की वास्तविकता भी सामनें है। पूंजीवाद जहाँ धनार्जन की निर्बाध छूट दे मनुष्य को अपराधी बनाता है वहीं मानव-श्रम को आधार बना राज्य मानव की स्वतंत्रता का अपहरण करनें का अपराधी बनता है। श्रम का समबन्ध शरीर से है,परिश्रम का समबन्ध बुद्धि से है,इनका कुविचारित प्रयोग का हश्र भी हमारे सामनें है। किन्तु इसका निदान है--भारतीय चिन्तनधारा नें एक अभिनव मार्ग दिखाया था आश्रम व्यवस्था का,जो व्यष्टि के साथ समष्टि के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करनें का मार्ग है। किन्तु अपनें ग्रामीण परिवेशी बाप को बाप कहनें से बचनें वाले तथाकथित बुद्धिजीवी कभी इस पर ध्यान देंगे? मुशकिल दीखता है।

बड़े बुज़ुर्गों की वैसे तो अनुभवजन्य ‘राय’ है कि बिना माँगे सलाह और भीख देना दोनों ही खतरनाक है,लेकिन अब ‘चतुर’ चुप कैसे रहें? रिटायर्ड़ हो चुके या होंने वाले लोगों को तो अर्जित पूँजी बचाये रखना ही ज्यादा श्रेयस्कर है,क्योंकि एक उम्र के बाद यह पूँजी ज़ायज तरीके से एकत्रित करना असम्भव तो नहीं किन्तु सामान्यतः कठिन कार्य है। हर काम की अलग अलग उम्र होती है। अब जो ‘न उम्र की सीमा हो न जन्म का हो बन्धन’के फलसफे को मानते हैं उन वीरों की गति तो वही जानें। जैसे किसी उद्योग या व्यापार के लिए कम या ज्यादा पूंजी दोनों ही नुकसानदेह होती है वैसे ही जीवन की आवश्यकता के लिए जो सामान्यतः धन का संग्रह होंना चाहिये,उतनें पर ही संतोष करनें की आदत ड़ालनी चाहिये। धन का अतिरेक अपनें साथ कुछ अन्तरव्याप्त (इन्हेरेन्ट) व्याधियाँ भी लाता है यह ध्यान में रखा जाना फायदेमंद ही होता है। यदि हमनें अपनें पारिवारिक दायित्वों का समय पर निर्वहन कर लिया है अर्थात पुत्र-पुत्रियों को अच्छी शिक्षा-दीक्षा दे व्यवस्थित कर दिया है और हारी बीमारी समेत सामान्य जीवन चलानें की समुचित व्यवस्था है तो बस अर्थ से समबन्धित व्यवस्था की इतनी ही तो जीवन में भूमिका है। बाबा-दादा एक कहावत कहते थे ‘पूत कपूत तो क्यों धन संचय,पूत सपूत तो क्यों धन संचय’?

फिर भी कनफ्यूजियानें पर “गिरधरकविराय” की यह कुण्ड़्ली मन ही मन दुहरा लेता हूँ-

‘बिना बिचारे जो करे, सो पाछे पछिताये।
काम बिगारो आपनों, जग में होत हँसाये।
जग में होत हँसाये, चित्त में चैन न आवै।
खान-पान-सम्मान, रागरंग मनहि न भावै।
कह गिरिधरकविराय,दुःखकछु टरत न टारै।
भटकतहै मनमाँहि, कियो जो बिना बिचारे॥

सोमवार, 29 दिसंबर 2008

‘सभ्यताओं का युद्ध’ देखनें से पहले ‘हटिंग्टन’नहीं रहे !

सैमुअल फिलिप्स हंटिंग्टन का बुधवार २४ दिसम्बर को ८१ वर्ष की आयु में अमेरिका के मैसाचुसेट्स में निधन हो गया।१८ अप्रैल १९२७ को न्युयार्क में जन्में हंटिंग्टन अपनें विचारों के कारण प्रारंभ से ही चर्चा में रहे। १९५७ में सैनिकों और नागरिकों के सम्बन्धों को व्याख्यायित करनें वाली पहली प्रमुख पुस्तक ‘दि सोल्ज़र एण्ड़ दि स्टेट’भारी विवादों के घेरे में रही किन्तु आज सैन्य-नागरिक सम्बन्धों पर विचारण के लिए सबसे प्रभावशाली पुस्तक मानीं जाती है।हारवर्ड़ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रहे हंटिंग्टन का अमेरिकी कूटनीति और राजनीति पर गहरा प्रभाव रहा था।अमेरिकी शासनव्यवस्था,लोकतंत्र,कूटनीति,सत्ता परिवर्तन एवं आप्रवासी समस्या आदि विषयों पर १७ से अधिक पुस्तकें लिखनें वाले हटिंग्टन की १९९३ में प्रकाशित सबसे चर्चित और आज भी सामयिक पुस्तक ‘क्लैस आफॅ सिविलाइजेशन एण्ड रिमेकिंग आफॅ वर्ड़ आरॅड़र’ ही कही जाएगी।

इस्लाम के प्रबल आलोचक हटिंग्टन की मान्यता थी कि दुनिया के तीन चौथाई युद्ध मुस्लिमों के साथ दुनिया की विभन्न सभ्यताओं को करनें पड़े हैं।क्रिश्चियन,यहूदी,हिन्दू सभी के साथ मुस्लिम युद्धरत रहे हैं या अभी भी लड़ रहे हैं।इस्लाम एक युद्धोन्मत्त विचारधारा है और इसीलिए सेना तथा इस्लाम में अधिकांशतः दुरभिसन्धि रहती है।सभ्यताओं के मध्य संघर्ष का उनका यह मत जहाँ क्रिश्चियन अमेरिका बनाम क्रिश्चियन सर्बिया के साथ हुए युद्ध या दीर्घकाल से चले आ रहे आयरलैण्ड़ बनाम इंग्लैण्ड़ के मध्य संघर्ष से पुष्ट होता है वहीं ईरान-ईराक,या स्वयं ईराक के विभिन्न गुटों या फिर वहाबी सुन्नी बनाम शिया,बोहरा,कादियान आदि के मध्य निरंतर चल रहे संघर्षों से भी पुष्ट एवं प्रमाणित होता है।

अमेरिका में हुए ९/११ के आतंकी हमलों के बाद हटिंग्टन की मान्यता और बढ गयी।ओसामा बिन लादेन के बयानों नें हटिंग्टन की स्वीकार्यता को सर्वमान्य कर दिया।मुस्लिम देशों में लोकतांत्रिक मान्यताओं के अभाव और विश्व के ३० से अधिक देशों में संघर्षरत मुस्लिमों के कृत्यों से तो हटिंग्टन की विचारधारा ही सही सिद्ध हो रही है।साम्यवादियों- फिड़ेल कास्त्रो,चोमस्की,चे ग्वेरा(जूनियर)आदि(भारतीय कम्युनिस्ट भी) नें जबसे ईरान के राष्ट्रपति अहमदिनेज़ाद से हाथ मिलाए हैं तब से बड़े तार्किक(?) तरीके से हटिंग्टन को गलत साबित करनें और इस्लाम को शांति का धर्म बतानें का असफल प्रयास करते रहें हैं।वस्तुतः इस्लाम और मार्क्सवाद में दो बड़ी विचित्र समानताएँ हैं-विस्तारवाद और खूँरेजी।एक इस्लामिक ब्रदरहुड़ की बात धर्म की ऒट लेकर करता है तो दूसरा पूँजीवाद के विरोध के नाम पर। इन दोनों विस्तारवादियों की सत्ता जहाँ भी है क्या वहाँ लोकतंत्र और भिन्न मत रखनें वालों का कोई अस्तित्व मिलता है?सत्ता प्राप्त करनें के लिए दोनों ही विचारधाराऎं कत्लो गारत से जरा भी परहेज नहीं करतीं।

यह एक अजीब संयोग है कि सभ्यताओं के संघर्ष की कहानी को सैद्धान्तिक आधार देनें वाले हटिंग्टन की मृत्यु के ठीक तीन बाद तब जब कि हिदू परम्परानुसार कतिपय लोग तीसरे दिन मृतात्मा की शांति के लिए प्रार्थना करते हैं आये दिन होंने वाली मिसाइल फायरिंग से ऊब कर इज़्राईल हमास को मुँहतोड़ जवाब ऎसे दे रहा है मानों हटिंग्टन की स्मृति मे शांति हवन कर रहा हो।मानों कह रहा हो कि सभ्यताऒं का संघर्ष एक शाश्व्त सत्य है क्यों कि सभ्यताएँ देश काल की सीमा से जकड़ी रहती हैं और कोई भी सभ्यता बिना संस्कृति के अधूरी रहती है।सभ्यता शरीर है और संस्कृति आत्मा।संस्कारित हुए बिना,सभ्यताऒं का संघर्ष क्या कभी समाप्त हो पाएगा?

रविवार, 16 नवंबर 2008

क्या आप समलैंगिक हैं या कहलाना पसंद करेंगे?

आज रविवार रात्रि ९.३० बजे एन०डी०टी०वी० पर ‘दोस्ताना’फिल्म के बहानें से समाचार वाचिका नग्मा और एक अन्य नें बहस चला दी समलैंगिकता पर।न्यूजरूम में सशरीर उपस्थित थे अशोक रावजी अध्यक्ष ‘हमसफर’,जिन्हें विषय विशेषज्ञ बताया जा रहा था और जो बार बार यह बता रहे थे कि समलैंगिकता जन्मजात होती है।टेलीकान्फ्रेंसिंग में पाँच अन्य व्यक्त्ति, अभिनेता समीर सोनी जो मधु भण्डारकर की इसी विषय पर बनीं फिल्म के हीरो रहे थे और समलैंगिक समबन्धों को स्वाभाविक,प्राकृतिक एवं गम्भीर विषय बता रहे थे,के अतिरिक्त जान अब्राहम,अभिषेक बच्चन और ‘दोस्ताना’ के निर्माता निर्देशक तरुण भी चर्चा में शरीक थे और जिनका कहना था कि इस विषय को यह फिल्म ह्युमर के रुप मे प्रस्तुत करती है और उनका उद्देश्य इस विषय पर कोई गंभीर चर्चा चलाना नहीं था।
पाँचवें और अन्तिम व्यक्त्ति थे दिल्ली के पूर्व पुलिस कमिशनर श्री ककक्ड़ जो यह कहनें का प्रयास कर रहे थे कि समलैंगिकता न केवल अप्राकृतिक एवं भारतीय संस्कृति के विपरीत है,वरन दुनिया में मात्र ७-८ देशों में ही इसकी कानून अनुमति दी गई है और यह भी कि अमेरिका जैसे देश में भी मात्र तीन स्टेट्स में यह कानून वैध करार दिया गया था।श्री ककक्ड़ के अनुसार समलैंगिकता को अनुमति देनें में उत्तराधिकार,सम्पत्ति,विवाह और अपराध सम्बन्धी कानूनों में भी बदलाव लाना पड़ेगा।
श्री ककक्ड़ के संस्कृति विरुद्ध और कानूनी अड़चनों के तर्क पर अशोकजी एवं अभिनेता समीर सोनी जी को गंभीर आपत्ति थी।उनके अनुसार संस्कृति क्या होती है और कानून नहीं हैं तो बनाए जा सकते हैं?उनके अनुसार शास्त्रों एवं पुराणों मे भी वर्णित यह प्राकृतिक एवं जन्मजात प्रवृत्ति है और इस पर गंभीरता,सहानुभूति एवं मानवीय प्रवृत्ति की आवश्यकता मानकर निर्णय किया जाना चाहिये।
जितनें शास्त्र और पुराण मैनें पढ़े हैं मुझे नहीं याद पड़्ता कि कहीं समलैंगिकता का वर्णन मिलता है।जहाँ तक रही संस्कृति कि बात तो मुझे लगता है कि बहुतों को संस्कृति शब्द का अर्थ ही नहीं मालूम और अशोकजी एवं समीरजी इस के अपवाद नहीं लगते। हाँ संस्कृति से उनका आशय यदि कल्चर से है तो वहाँ तो ब्लड़ से लेकर यूरीन तक का कल्चर होता है।समलैंगिकता जन्मजात या प्राकृतिक तो कदापि नहीं हो सकती।
विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण सहज,स्वाभाविक और प्राकृतिक होता है,यह स्वतः सिद्ध है,बहुत सारी आधुनिक विज्ञान की खोज भी यही सिद्ध करतीं है।कुत्तों बिल्लियों तथा अन्य पशुओं मे बचपनें के खिलवाड़ में कभी कभी यह दिखता है लेकिन उम्र पाकर वह भी नहीं देखा जाता।अगर यह जन्मजात और प्राकृतिक है तो विकृति या ‘परवर्जन’ क्या होता है?गृहमंत्री और स्वास्थ्यमंत्री में इस विषय पर युद्ध की स्थिति बनी हुयी है। स्वास्थ्यमंत्री रामदौस समलैगिकता के प्रबल समर्थक हैं,क्यों?

शनिवार, 1 नवंबर 2008

मुट्ठी बाँधकर आया जगत में हाथ पसारे जायेगा !

जन्म लेनें के बाद किसी को भी शायद यह निश्चित तौर पर ज्ञात नहीं होता है कि उसका भविष्य क्या होगा किन्तु एक सत्य सब को ज्ञात होता है‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु’ कि जो पैदा हुआ है वह मरेगा अवश्य।मरनें के बहानें ज़ुदा हो सकते हैं,कफ़न दफ़न के तरीके अलग हो सकते हैं,किन्तु मरेगा अवश्य।अपनें अनुभव से वह यह भी जान जाता है कि शिशु जब उत्पन्न होता है तो उसकी मुट्ठी बन्द होती है।मानों बन्द मुट्ठी में पूर्वजन्म के संस्कारों का खज़ाना बन्द हो।बन्द मुट्ठी जैसे इस बात का इशारह हो कि जिस परवरदिगार ए आलम नें, परात्पर परब्रह्म नें,पैदा किया है उसनें पैदा हुए हर इंशा को कुछ नियामतों के साथ पैदा किया है।मुट्ठी में बन्द यह उपहार नियामतें न केवल स्वयं के लिए हैं वरन घर परिवार पास पड़ॊस और दुनियाँ के लिए भी हैं जो उसके माध्यम से भेजी गयीं हैं।उन नियामतों मे सबसे प्रमुख है बुद्धि,विवेकयुक्त बुद्धि।यही, विवेकबुद्धि ही, स्रष्ट हुए जगत के अन्य जड़ चेतन से मनुष्य को श्रेष्ठ बनाती है।उस जगतनियन्ता सच्चिदानन्द की यह अपेक्षा रहती है कि मनुष्य उस जैसा सत चित आनंद युक्त बनें।
बन्द मुट्ठी के विपरीत वह एक और संकेत देता है कि हर मरे हुए का हाथ पसरा हुआ रह्ता है,मरते वक्त मुट्ठी खुली हुई रहती है।यह संकेत अत्यन्त स्पष्ट तरीके से बताता है कि उसकी दी हुयी नियामतें बाँटनें के लिए हैं संग्रह करनें के लिए नहीं।जो कुछ उस जगत्त्निंयंता नें हमें दिया है हमें यहीं छोड़्कर जाना होगा।संदेश न केवल स्पष्ट है अपरिवर्तनीय भी है।जैसे उसके द्वारा रचित प्रकृति का हर अंग बिना भेद भाव के अपना अवदान सर्वजन हिताय कर रहा है वैसे ही तुम्हें भी करना होगा।किन्तु जहाँ जड़ और पशु कहे जानें वाला जीव जगत स्वभावतः उसके निर्देश का पालन करते सर्वत्र दिखायी पड़्ते हैं वहीं मनुष्य अधिकांश में मनमानी करता दिखायी पड़्ता है।यही न केवल तमाम बुराईयों की जड़ है वरन्‌ आज की तथाकथित प्रगतिशील दुनियाँ में भांति भांति के तनावों और युद्धों का कारक भी।
गोवा से प्रकाशित होनें वाले अंग्रेजी समाचारपत्र‘हेराल्ड’के १७ अगस्त २००८ के अंक में प्रकाशित यह समाचार यूँ तो खुद अपनी कहानी बयाँ कर रहा है किन्तु ४८०००रु०,१४लाख रु० या फ़िर लगभग १करोड़ रु० प्रतिदिन अर्जित करने वाले लोगों की दुनिया का ताश का महल एक न एक दिन तो ढ़हना ही था।यह जो दस्युओं का स्वर्ग बन रहा था उसका मन्दी रुपी दानवी सुरसा के द्वारा निगला जाना क्या अस्वाभाविक कहा जा सकता है?
सोवियत रुस और चीन के ग्लास्नास्त और पेरोस्त्राइका/साम्यवादी नीतियों से यूटर्न लेनें और पूँजीवाद के मुँहभरा गिरनें के बाद,यह तो मान ही लेना चाहिये की दोनों नीतियाँ न केवल दोषपूर्ण है वरन्‌ मानवमात्र की आवश्यकताओं का स्थायी समाधान भी नहीं दे सकतीं।विकल्प भारत दे सकता है बशर्ते कर्णधार यह तय करें कि जगत्गुरु बनना है या सोंने की चिड़िया।









मंगलवार, 28 अक्तूबर 2008

अब तो लक्ष्मी को मुक्त करोः

प्राचीन काल की बात है,एक बार काली लक्ष्मी और सरस्वती उत्तरदिशा स्थिति भौम स्वर्ग में एकत्रित हुँयी।स्त्रियोचित स्वभाव वश वार्तालाप करते करते आपस में विवाद हो गया।विवाद का विषय था कि तीनों में कौन श्रेष्ठ है?किसी भांति भी जब आपस में श्रेष्ठता के प्रश्न पर सहमति नहीं बन पायी तो ज्येष्ठ होंने के कारण काली पर निर्णय का भार छोड़ा गया।विचारोपरांत काली नें कहा कि हम तीनों मृत्युलोक चलते हैं और देखते है कि हममें से किस को चाहनें वाले अधिक है।जिसके चाहनें वाले अधिक होंगे उसको विजेता माना जाएगा किन्तु एक शर्त है कि कोई भी सूर्योदय के बाद मृत्युलोक में नहीं रुकेगा।
जिस भांति सूर्योदय से सूर्यास्त तक के दिन को तीन भागो--प्रातःसवन जो गायत्री का काल है,माध्यन्दिन सवन जो सावित्री का काल है एवं सायं सवन जो सरस्वती(तीनों कालों में एक गायत्री मन्त्र ही उपांशु आदि स्वरभेद से उच्चरित किया जाता है) का काल है,में बाँटा गया है वैसे ही रात्रि के समय को भी तीन भागो मे विभाजित किया गया है।संध्या से मध्यरात्रि,विशेषतया अंतिम घटी(४८ मिनट स्थानीय समयानुसार) को महानिशीथ काल,महानिशीथ काल से ५घटी में अंतिम १घटी या ४८ मिनट महाउदगीथ काल और तत्पशचात से सूर्योदय के पहले की १घटी को महाउदीच्य काल या ब्राह्म मुहूर्त कहा गया है।
प्रतिज्ञानुसरेण काली-कराली-आकाशवसना-त्रिनेत्री काली मुण्डमाला आदि अलंकरों से सुसज्जित हो निकल ही तो पड़ीं महानिशीथ काल में।मन ही मन हुलसित शिवांगी जहाँ एक ओर उत्सुक ही नहीं आत्मविश्वास से उत्फुल्ल भी थीं कि महाकाल आदिदेव महादेव की अर्धाँगिनी होनें के नाते मृत्युलोक वासी उन्हें हाँथो हाँथ लेंगे वहीं महानिशीथ काल समाप्त होंने के पहिले वापसी की चिन्ता भी सता रही थी।शिवानी नें पहिले घर का दरवाजा खट्खटाया,अल्सायी सी मुद्रा में ग्रहपति नें घर का दरवाजा खोला बाहर निपट अंधेरे में उसे कोई नजर ही न आया।बड़बड़ाते हुए अभी दरवाजा बन्द कर पलटनें ही वाला था कि द्वार पर पुनः खटखट,उसनें पुनः दरवाजा खोला किन्तु मध्यरात्रि के उस निविड़ अंधकार में कुछ भी न दिखायी देनें पर गाली बकते हुए उसनें दरवाजा बन्द दिया।हड़बड़ायी गड़बड़ायी सी काली नें अगले घर का रुख किया और महान आश्चर्य वहाँ भी लगभग वैसी ही पुनरावृत्ति हुई।
कई घरों के जब दरवाजे तक न खुले तो मृड़ानी-काली नें दो चार घरों मे झाँक कर देखनें का प्रयास किया।कहीं राजा साहब मद्यपान कर शिथिलगात हो नर्तकियों का नृत्य देख रहे थे तो कहीं पति नवोढ़ा पत्नी की मनुहार में व्यस्त था।कहीं नगर श्रेष्ठी उस दिन के विक्रय से अर्जित स्वर्ण मुद्राओं को गिननें में व्यस्त था तो कहीं दिन भर के हाड़ तोड़ श्रम के बाद शिथिलगात श्रमिक पेट में घुटने दबाये सो रहा था।समय बीतता देख शिवाँगी नें मृत्युलोक भ्रमण की गति बढ़ाई किन्तु कहीं भी आदर से बैठाना तो दूर दरवाजा खोल हाल चाल पूँछनें वाला तक न मिला।एक जगह एक ब्राहम्णदेउता नें दरवाजा खोल के जो उनकी धजा देखी तो प्रेतनी समझ, बैठाना तो दूर भड़ाक से मुह पर दरवाजा बन्द कर महामृत्युंजय का तो जाप ही न करनें लगे।
स्रष्टि की आदिकर्त्री महाकालशिव की महामाया रुद्राणी काली जहाँ औढ़रदानी पति पर कुपित थीं कि स्रष्ट्योन्मेषकर्ता आदिदेव महादेव का यह कैसा माहात्म्य है कि सम्पूर्ण भूलोक पर उनका एक भी ऎसा भक्त न मिला जो झूँठा ही मन रखनें के व्याज से ही एक बार सम्मान से बैठनें के लिए कहता।कुपितमनः शिवानी के मन में विचारों का आन्दोलन उन्हें सन्तप्त किये जा रहा था,जिसको देखो आता है एक स्तुति सुनाता है‘नमामि शमीशान निर्वाण रुपं’और यथेच्क्षित वर ले कर चला जाता है।सबसे ज्यादा क्रोध उन्हें शंकर पर आरहा था कैसे‘चाम्पेयगौरार्धशरीरकायै-कर्पूरगौरार्धशरीरकाय’सुनाता था,कहता था माँ यह अर्धनारीश्वर स्तोत्र तीनों लोकों में आपको प्रसिद्धि देगा !हूँ ! बना शंकराचार्य घूमता है,और वह रावण,कैसे ‘जटाट्वीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले’सस्वर गाता था, दुष्ट-इनसे पाशुपात्रास्त तक ले गया,ठीक ही किया दशरथनन्दन नें।अचानक पुत्र गिरागुरु गणेश की उन्हें याद आयी।यह सोंचकर हृदय शान्त हुआ कि भूतनाथ अगर कुछ न करेंगे तो गणपति अवश्य कुछ करेगा।इन्हीं संकल्पविकल्पातम्क स्थिति में जैसे तैसे सांसों को संयमित करते मुण्ड़्मालिनी भौमस्वर्ग पहुँची।पहुँचते ही सरस्वती से बोलीं जल्दी करो नहीं तो उद्गीथ काल न निकल जाये।
यह सुनते ही ब्रह्माणी अचकचा कर उठीं और अपनें कक्ष में जा कर प्रस्थान की तैयारी करनें लगीं।शिवपटरानी की हड़बड़ाहट उन्हें सन्देह में ड़ाल रही थी,लगता है गिरिजा को यथेष्ठ सम्मान नहीं मिला या फिरऽऽऽ।चलो जो भी हो अगर कुछ ऎसा वैसा हुआ होगा तो अपनॆं खबरीलाल नारद से पता चल ही जायेगा।रह रह कर उन्हें महालक्ष्मी पर क्रोध आ रहा था,बैठे बिठाये उसे कोई न खोई उत्पात सूझा करता है,इनसे कहूँगी कि शॆषशायी से बात करें,लक्ष्मी को थोड़ा सयंम से रहनें की सलाह दें।
वीणापाणिनी नें पहले की तरह श्वेत साड़ी पहन ली थी,गले में मुक्ता की वही पुरानी माला पहनते हुए एक बार मन में आया कि सनन्दन के पिता से कहूँगी कि बरसों पुरानी इस माला के स्थान पर नई दिलवा दें किन्तु तक्षण ही उन्हें याद आया कि १०८ मनकों कि जिस माला को वह स्रष्टि के आदि से पहनें हुए है उसे बदलनें का मतलब है स्रष्टि का अन्त।क्योंकि ‘अकारो व सर्वावाक’।माला उतारनें में जो क्षणमात्र का समय लगेगा,उतनें समय में ब्रह्माण्ड में परा पश्यन्ती मध्यमा वैखरी आदि जो ध्वन्या और शाब्दीवाक्‌ है उसका अन्तरप्रवाह ही रुक जायेगा।यह जो‘ऋचो अक्षरे परमे व्योमन’ वाला आकाश है वही संकुचित होकर परात्पर में विलीन हो जायेगा।तब न देव रहेंगे न उनकी स्रष्टि।नहीं-नहीं,ऎसा विचार मन में आया ही कैसे।यह सब उस चंचला लक्ष्मी की संगत का प्रभाव है।
मन्दहासवदिनी मनोन्मयी सरस्वान समुद्र वासिनी सरस्वती एक हाथ में पुस्तक दूसरे में वीणा तीसरे में रुद्राक्ष की माला और चौथे हाथ में अंकुश लिए हंसारुढ़ हो निकल पड़ीं अपनें गन्तव्य की ओर।वाग्देवी को अपनें गन्तव्य को लेकर जरा भी भ्रम नहीं था।उन्हें मालुम था कि उन्हें आचार्यकुलों की ओर ही जाना है।यद्यपि अभी विद्याध्ययन का समुचित समय नहीं हुआ था तो भी उन्हें यह भरोसा था कि जब वह निकटस्थ वशिष्ठाश्रम पहुँचेंगी तब तक आचार्यप्रवर शिष्य वृन्द के साथ दैनन्दिन चर्या से निवृत्त हो गाहर्पत्य का अग्नयाधान प्रारम्भ कर चुके होंगे।
मूक होंयें वाचाल ऎसी श्रद्धान्वित जिस जनमानस में हो वहाँ चिकतुषी को द्वन्द्व ही कहाँ?वशिष्ठाश्रम अब सामनें ही था,छात्रगणों की समवेत स्वर‘नमस्ते शारदे देवि,काश्मीरपुरवासिनी/त्वामहं प्रार्थये नित्यं विद्यादानं च देहि में।अक्षसूत्राक्डुशधरा पाशपुस्तकधारिणी/मुक्ताहारसमायुक्ता वाचि तिष्ठतु में सदा।उल्लसितमनः सरस्वती नें छात्रों की ध्यानमयी स्तुति में विघ्न न पड़ॆ ऎसा ध्यान रखते हुए अन्दर झाँक कर देखा तो पद्मासन में स्थित मुनि वशिष्ठ उपांशु स्वरों में‘ओम्‌ भूर भुवःऽऽऽऽऽ’ गायत्रीमन्त्र का जप कर रहे थे।आह्लादित ह्रदय ब्रह्माणी नें तक्ष्ण निर्णय किया की अब वह वापिस लौटेंगी क्योंकि उन्हें यह ज्ञात हो चुका था कि जब तक धर्मनिष्ठ आचार्य और धर्मप्राण जीव हैं जब तक मर्त्यलोक भा(प्रकाश-ज्ञान के प्रकाश की उपासना में) रत और भारतीय हैं तब तक धरा सुरक्षित है।भौमस्वर्ग की ओर लौटते समय किसी ग्रहस्थ की लोकभाषा में वन्दना कर्ण कुहर में पड़ी--‘शब्द शब्द के फूल अर्थ के सौरभ से अर्चन होगा/रस की यजन आरती से आह्लादित माँ का मन होगा।माँ मैं तेरे पाँओं पडूँ तू मुझको तज कर जा न कहीं/बींन बजे मेरे अन्तर में आसन और लगा न कहीं।’मुकुलितमन होंठों पर मन्द स्मित लिये सरस्वती भौमस्वर्ग पहुँचीं तब महामाया विश्राम के लिए जा चुकीं थीं।महालक्ष्मीं भी उनिंदियाई सी जग रहीं थीं। सरस्वती नें वीणा के झंकृत स्वरों में कहा उठो चंचला अब तुम्हारी बारी है,और महाउदीच्च्य काल अब प्रारम्भ हुआ ही चाहता है।
महालक्ष्मी तो इस क्षण की मानों प्रतीक्षा ही में थीं,त्वरित गति से तीनों लोकों से न्यारे वस्त्राभरण पहन तथा आभूषणादि से अलँकृत हो चलनें के लिए प्रस्तुत हुयीँ तो सरस्वती नें मन्त्रजप बीच में रोककर कहा-लक्ष्मीं शर्त तो याद है न?सूर्योदय से पहले ही वापिस होना है और वैसे भी हम मानव शरीर में मृत्यलोक में तो प्रकट नहीं हो सकते। हाँ ब्रह्माणी मुझे मालूम है क्या इतना भी ज्ञान मुझे नहीं है? उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ‘चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं’ त्वरा के साथ मर्त्यलोक को निकल पड़ी।
विष्णुप्रिया त्वरा के साथ निकली तो थी किन्तु वह असावधान भी नहीं थी।उसे अनायास ही ध्यान आ गया था कि आज पूर्णमासी है और आज सूर्यास्त के पहिले ही चन्द्र भी दक्षिण से उदय हो पड़्ता है।आज के दिन तो शेषशायी की अनुचरी बन उसे रहना ही है।मयूर पर सवार पद्ममालिनी नें मर्त्यलोक पहूँचते ही वाहन छोड़ भ्रमण करना प्रारम्भ किया। मिश्रित आबादी वाला क्षेत्र था जहाँ श्रीमतां लक्ष्मीं जी भ्रमणायमान थीं। एक सामान्य से घर के बाहर द्वार पर उन्होंनें दस्तक दी।अन्दर से किसी वृद्ध के स्वर में‘नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय-भस्माड्गरागाय महेश्वराय’आती अवाज थम गयी और कुछ क्षण बाद एक गौरवर्ण वृद्ध नें द्वार खोला।सामनें स्वर्णाभारण से लदी फँदी एक नवयौवना को देख कर वृद्ध महाशय गड़्बड़ा गये। उन्होंने मन में कहा कि कहाँ ब्रह्म मुहूर्त में ये माया प्रकट हो गयी। तभी विष्णुप्रिया नें वृद्ध की मनोंदशा का आभास करते हुए कहा कि मैं बहुत दूर से आयी हूँ और कुछ समय विश्राम करना चाहती हूँ क्या आप मुझे अन्दर आनें की अनुमति देंगे?ऊहापोह में पड़ॆ वृद्ध जो एक ब्राह्मण थे नें मन में विचार करते हुए कहा कि समस्त अंग लक्ष्णों से तो जैसे साक्षात लक्ष्मी ही हों ऎसा प्रतीत होता है किन्तु है फिर भी यह माया का फेर।ऎसा सोंचते हुए प्रकटतः उन्होंने कहा कि बेटी यह मेरी नित्य उपासना का समय है,द्वार पर आये अतिथि को मना भी नहीं किया जाता,फिर भी यदि असुविधा न हो तो किसी अन्य घर में विश्राम कर लो। लक्ष्मी नें वृद्ध ब्राह्मण की मनोंदशा का आनन्द लेते हुए कहा ठीक है आप व्यर्थ चिन्तित न हों,मै किसी अन्य स्थान पर विश्राम कर लूँगी।इतना कहते ही वह अन्तर्ध्यान हो गयी।तब ब्राह्मण को पश्चाताप हुआ कि अरे यह तो लक्ष्मीं ही थी।
सुवर्णमयी लक्ष्मीं नें थोड़ा आगे जा एक बड़ी सी हवेली की साँकल बजायी।दो-तीन बार दस्तक देनें पर अन्दर से आकर एक प्रौढ सुदर्शन पुरुष नें लड़्खड़ाते हुए दरवाजा खोला।आँखों में नशा और एक हाथ में मदिरापात्र देख लक्ष्मी सकपकायीं।सामनें सोनें से लदी अनिंद्य रुपसी को देख राजा साहब गदगद बोले आओ आओ सुन्दरी तुम्हारा ही इन्तजार था।शराब भी है साकी भी आगयी अब तो मानो स्वर्ग ही इस हवेली में उतर आया है।सन्न्‌ विष्णुप्रिया नें स्थिति की संवेदनशीलता और इज्जत खतरे में देख अन्तर्ध्यान होंने में ही भलायी समझी।
ड़्ररी सहमी लक्ष्मीं नें सांसों को व्यवस्थित किया और चल पड़ी अगले घर की तरफ आखिर प्रतिज्ञा तो पूरी ही करनीं थी। अगले घर का दरवाजा खटखटानें से पहलें उन्होंनें दरवाजे पर कान लगा टोह लेनें की कोशिश की।अन्दर से आती आवाजों से उन्होंने अनुमान लगाया कि कोई वृद्ध गाय की सानी लगातॆ हुए गुनगुना रहा था‘श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वाशुदेवः’।द्वार खटखटाते ही वृद्ध व्यापारी नें आवाज लगायी कौन?प्रत्युत्तर में बाहर से जवाब आया मैं दरवाजा खोलिये!नारी की मधुर आवाज सुनकर व्यापारी नें सोंचते हुए जो दरवाजा खोला तो एक क्षण के तो लिए हतप्रभ रह गये,जैसे साक्षात लक्ष्मीं ही प्रकट हो गयीं हों।गो ब्राह्मण प्रतिपालक व्यापारी नें व्यावहारिक बुद्धि का परिचय देते हुए कहा आओ आओ बेटी अन्दर आओ तुम्हारा ही घर है,जरुर किसी विपत्ति में हो तभी मुँह अंधेरे घर से निकल पड़ी हो।लक्ष्मी कुछ उत्तर दें इससे पहले ही उसनें आवाज लगानी शुरु की अरे मुन्नू की अम्मा अरे छोटे की बहू अरे मुन्नू देखो तो घर में अतिथि आये हैं जल्दी से कुछ जल मिष्ठान्न लाओ तो।
आवाज सुनकर पूरा घर इकठ्ठा हो गया,जल मिष्ठान्न आ गया तब वे उस युवती की ओर आकृष्ट हुए और बोले हाँ तो बेटी अब बताओ क्या समस्या है?ताबड़्तोड़ आतिथ्य से हड़्बड़ायी लक्ष्मी नें कहा इस सब की आवश्यकता नहीं है मैं मात्र कुछ समय के लिए यहाँ विश्राम करना चाहती हूँ क्योंकि मुझे सूर्योदय से पूर्व अपनें घर भी पहुँचना है। व्यापारी मन ही मन गुणा भाग लगा रहा था,उसनें कहा हाँ हाँ बेटी तुम विश्राम करो मै बस गंगा स्नान कर अभी लौटता हूँ।नहीं तात मुझे शीघ्र ही जाना होगा आप के आनें में विलम्ब हो सकता है। इस पर व्यापारी नें कहा बेटी तुम तनिक भी चिन्ता न करो मै बस य़ुँ गया और यूँ आया,चुटकी बजाते हुए सेठ गोपीचन्द नें कहा। चाह कर भी लक्ष्मीं कुछ न बोल पाँयी। सेठ गोपीचन्द ने पत्नीं बच्चों को कलेवा तैयार करनें और अतिथि की समुचित देखभाल करनें का निर्देश दे गंगा स्नान को प्रस्थित हो गये।
रास्ते भर सेठ गोपीचन्द सोंचते रहे कि हो न हो यह साक्षात लक्ष्मीं ही घर पधारी हैं।सेठ जी नें कथा सत्संग में सुना था कि ब्रह्म मुहूर्त में देवी देवता भक्तों की परीक्षा लेनें निकलते हैं।सेठ जी का मन आज न ठीक से भजन में लग रहा था न मार्ग में नित्य मिलनें वाले मित्रों से राम जुहार में।बार बार एक विद्वान संत की सुनाई एक पंक्ति उन्हें याद आ रही थी‘॥नित्यं सा पद्महस्ता मम वसतु गृहे सर्वमांगल्ययुक्ता ।लक्ष्मीं क्षीरसमुद्र राजतनयां श्रीरंगधामेश्वरीम॥’गंगा जी तक पहुँचते पहुँचते सेठ जी लगभ इस निश्कर्ष पर पहुँच चुके थे कि आगन्तुक स्त्री साक्षात महालक्ष्मीं ही हैं।गंगा में डुबकी लगाते लगाते सेठ जी नें सोंचा अस्सी बरस की उम्र होनें को आयी जैसे तैसे व्यापार कर घर चलाता रहा हुँ क्यों न ऎसा करुँ की घर ही न जाँऊ।जब घर ही न लौटूँगा तो शपथ से बँधी लक्ष्मी घर से जायेगी ही नहीं।सेठ गोपीचन्द नें यह सोंच कर जो आखिरी डुबकी लगायी तो फिर ऊपर ही न आये। वचनब्द्धा विष्णुप्रिया तब से सेठ गोपीचन्द के यहाँ तीन पीढ़ी से बन्दनी जैसी पड़ी है।सेठ के नाती पोतों नें व्यापार में बड़ी तरक्की की है,विदेशों तक में व्यापार फैला लिया है।विदेशी बैकों में अथाह पैसा पड़ा है,पूँछने पर कहते हैं सब बाबा के पुण्य का प्रताप है।
अभी अभी पता चला है कि सेठ गोपीचन्द का ही नहीं अनेंको भ्रष्ट नेंताओं,अधिकारियों,स्मगलरों और आतंकवादियों का स्विट्‌जरलैण्ड की बैंकों में १.४५ ट्रिलियन या १४५०बिलियन सिर्फ भारतीयों का धरा है।अगर भारत सरकार चाहे तो वहाँ की सरकार यह बता सकती है कि किसका कितना रुपया है और यदि सरकार चाहे तो वह रुपया देश में लाया जा सकता है।कुछ लोगों का कहना है कि अपनें देश का पंत प्रधान-पंतप्रधान नहीं बिजूका है।ळ्क्ष्मीं जी मुझसे पूँछ रहीं है कि यह १.४५ ट्रिलियन कितना होता है?

रविवार, 12 अक्तूबर 2008

उतिष्ठ जाग्रत वरान्निबोधत

उनके लिए जिनके हृदय में राष्ट्र धड़कता है प्राण बनके। उनके लिए जिनके लिए सत्ता और राजनीति से बढकर धर्म दर्शन संस्कृति और सभ्यता का अर्थ अपनी विशिष्ट पहचान है।उनके लिए जो सनातन वैदिक आर्य धर्म जिसे अब अब हिन्दू नाम से जाना जाता है और जिन्हें गर्व है अपनीं इस पहचान पर।उनके लिए जो सत्ता को साध्य नहीं साधन मानते हैं और राष्ट्र के किए जीना ही नहीं मरना भी जानते हैं।उनके लिए जो मानते ही नहीं जानते भी हैं कि आत्म धर्म तभी बचेगा जब शरीर रहेगा एवं राष्ट्र रुपी शरीर के लिए उतपन्न आन्तरिक और वाह्य संकटों से वे अवगत हैं। अतः‘उतिष्ठ जाग्रत वरान्निबोधत’_
भारत में
राज्याधीश
पहले हूणों को लिए आए
मै कुछ नहीं बोला
क्योंकि मै हूण नहीं था।
वे यवनों को लिए आए
मै कुछ नहीं बोला
क्योंकि मै यवन नहीं था।
वे तुर्कों को लिए आए
मै कुछ नहीं बोला
क्योंकि मै तुर्क नहीं था।
वे मुगलों को लिए आए
मै कुछ नहीं बोला
क्योंकि मै मुगल नहीं था।
वे अंग्रेजों को लिए आए
मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं अंग्रेज नहीं था।
वे मात्र सत्ता के प्रतीक
कांगेसियों को लिए आए
मै कुछ नहीं बोला
क्योंकि मै शासित प्रजा
कांग्रेसी नहीं था।
वे धर्मनिरपेक्षों को लिए आए
मै कुछ नहीं बोला
क्योंकि मै साक्षात सर्वधर्म समभाव
छ्द्म धर्मनिरपेक्षी नहीं था।
फिर वे ‘मेरे’ लिए आए
तब कोई कुछ नहीं बोला
क्योंकि तब हिन्दुस्तान में
कोई हिन्दू नहीं बचा था।
‘धर्मों रक्षित रक्षताः’

बुधवार, 8 अक्तूबर 2008

God Makes Man Tailor Makes Gentleman

जब से दर्जी की दूकान के बोर्ड पर लिखी यह इबारत पढी है दिमाग में एक अजीब सी हलचल मची हुयी है। दिमाग यह माननें को तैयार ही नही है कि जिस god नें इतनी बड़ी कायनात बनायी और पैदा होनें वाले बच्चे तक की भूख मिटानें का इंतजाम किया,उससे से यह गलती कैसे हो गई कि सभ्य बनानें का ठेका दर्जी को दे दिया।


god भी ओपन सोर्स साफ्टवेयर टाइप चीज है अच्छा खासा मनुष्य तो बड़ी सुन्दरता से फ्री में बना दिया लेकिन वसूली करनें के लिए दर्जी को पीछे लगा दिया। दर्जी कहता है कि भद्र या सभ्य बनानें का काम मेरा है। कई बार यह कहनें के बावजूद कि god ने तो बिना कपड़े के ही पैदा किया था तुम मुझे कपड़े पहना कर यह कुफ्र क्यों करना चाहते हो इस पर उसनें डाँट कर कहा कि मालूम नहीं कि तुमनें god के मना करनें के बाद भी बाग का फल खाया तभी से तुम्हे लज्जा आनें लगी,इसीलिए कपडे पहनना जरुरी हैं।मैने उसे समझाते हुए कहा कि भाई गलती मेरी नहीं दर अस्ल हव्वा मेरी बीबी की हे,उसीनें मूझे वह ना मुराद फल दिया था। वह कह्ती है कि उसके साथ यह शैतानी साँप नें की थी।


तभी दिमाग में यक ब यक स्पार्क हुआ और सारा माजरा समझ में आ गया। दर अस्ल वह साँप ही अब दर्जी बन गया है,उस समय यह शैतानी जान बूझ कर इस लिए इसनें की होगी कि आगे भी धन्धा चलता रहॆ। पहले तो पेड़ों के पत्ते वगैरह लगा कर काम चला लेते थे लेकिन इस कमबख्त २१वीं सदी नें बेड़ा गर्क किया हुआ है। एक तो गिरता हुआ सेनसेक्स और इन्फ्लेशन और उधर रोज नये नये फैशन। इसलिए दर्जियों की बन आयी है।दर्जी भी भांति भांति के हैं कोई साम्यवादी दर्जी तो कोई समाजवादी,कोई काँग्रेसी दर्जी तो कोई संघी।कोई मानववादी दर्जी है तो कोई अल्पसंख्यकवादी,कोई बजरंगी दर्जी है तो कोई मुजाहिदीनी।


कुछ लेखको,पत्रकारों,कवियों नें भी दर्जी की दूकान खोल ली है।और तो और कुछ ब्लागरों नें भी इन दर्जियों का माल ठेके पर बनाना शुरु किया है।गरज़ यह कि सभी नें जेन्टिलमैन बनानें का धंधा शुरु कर दिया है। हद तो यह है कि कुछ दर्जी तो निहायत बेगैरत किस्म के हैं जाहिल अनपढ बिलकुल भांड। अल्पसंख्यकवादी दर्जी जो एक बार कपड़ा फाड़ चुका है कहता है सब को हरे कपड़े ही पहननें पड़ेंगे। संघी दर्जी कहता है कि अब पहले वाली गलती नहीं दुहरानें देंगे कपड़ॆ पीले ही पहननें होंगे।साम्यवादी दर्जी जो एक बार कपड़ा फाड़्नें में मददगार थे आजकल फिर जोर कसे हुए हैं वो सिले सिलाए रूसी/चीनी कपड़ॆ ही पहनानें पर उतारू रह्ते हैं जबकि चाहते तो इतनें दिनों में जरुरत भर के कपड़े सिलना सीख सकते थे।भाँड टाइप दर्जियों की लीला ही निराली इन्हें सिलाई के दाम के बटवारे से मतलब,जब चाहें जिसकी आरती उतारें जब चाहे धोबीपाट मार दें। अपनीं से ज्यादा दूसरे की दूकान पर नज़र ज्यादा गड़ी रहती है।आज कल मुजाहिदीनी दर्जियों की पैरवी में लगे हैं।


इन दर्जियों की हरकतों से इतना ऊब चुका हूँ कि उस दिन को लानत भेजता रह्ता हूँ जिस दिन गलती से हव्वा का दिया वह नाशुकरा फल खाया। न फल खाता न कपड़ॆ पहननें पड़्ते और न ही इन शैतान दर्जियों से पाला पड़ता।हव्वा मेरी बीबी दर्जियों की इन हरकतों से ऊबकर अपनें कपड़े एक दर्जिन को देनें लगी है। एक दिन जब मैं शाम को घूमनें के लिए निकला तो उसनें कहा कि दर्जिन के यहाँ से मेरा ब्लाउज लेते आना। घूम घाम के जब मैं दर्जिन के यहाँ पहुँचा तो दर्जिन दूकान से गायब थी लड़के ने बताया कि बना हुआ माल देनें और पैसे लेने गयी है। इंतजार में टाइम पास करनें के लिए मैने लड़्के से पूँछा कौन बिरादर हो तो जवाब था पहिले रहन तेली फिर भऐ भुर्जी अब हन दर्जी आगे अम्मा की मर्जी।ये दर्जी भी इसी दर्जिन के मिज़ाज के हैं।इस साँप इस शैतान इस दर्जी की हरकतों से इतना आजिज आ गया हूँ कि आजकल एक ही शेर बार बार नाजिल हुआ करता है‘आस्माँ पे है खुदा और ज़मीं पे हम/आजकल वो इस तरफ देखता है कम'।


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