शुक्रवार, 29 मई 2009

लोकतांत्रिक सामंतवाद : जय हो

सत्तर के शुरुआती दिनों मे विविधभारती की विज्ञापन सेवा जब मनोरंजन के क्षेत्र को एक नया आयाम दे रही थी। नए-नए विज्ञापन भी खासे आकर्षक बनाए जाते थे। उन दिनों के कुछ चर्चित विज्ञापन, मुझे उनकी बिंदास आवाज और स्टाइल के कारण बहुत पसंद थे। भविष्य की संभावनाओं को गर्भ में छिपाये उनमें से एक था ‘रस्टन इंजन बाप लगाये बेटे के बाद पोता चलाये’। हरित क्रांति के उस दौर में धाराप्रवाह जलधारा बही या नही, वह अलग विषय है किन्तु राजनीतिज्ञों नें उससे कैसी प्रेरणा ली, इसका मुज़ाहिरा करें.........

१-ज़ाकिर हुसैन के नवासे,खुरशीद आलम खाँ के लख्तेजिगर‘सलमान खुर्शीद’।

२-दलित शिरोमणि जगजीवनराम की लाड़्ली ‘मीराकुमार’।

३-पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री स०बेअंतसिंह के पौत्र ‘रवनीत सिंह’।

४-गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री अमरसिंह चौधरी के पुत्र ‘तुषार चौधरी’।

५-गुजरात के अन्य मुख्यमंत्री माधवसिंह सोलंकी के पुत्र ‘भरतसिंह सोलंकी;।

६-महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री वसंतदादा पाटिल के आत्मज ‘प्रतीक पाटिल’।

७-महाराजा पटियाला तथा भ्रष्टाचार का मुकदमा झेल रहे पूर्व मुख्यमंत्री स०अमरिंदर सिंह की मलिका महारानी ‘परणीतसिंह’।

८-ग्वालियर नरेश एवं केन्द्रीय मंत्री रहे स्व०महाराज माधवराव सिंधिया के उत्तराधिकारी महा०ज्योतिरादित्य सिंधिया’।

९-कश्मीर के महान सेक्युलर नेता और पं०नेहरु के प्रियपात्र मशहूर शेख अब्दुल्ला के नूरे नज़र ‘डा० फारुख़ अब्दुल्ला’।

१०-डा० फारुख अब्दुल्ला के दामाद, कश्मीर के वर्तमान मुख्यमंत्री उमर अबदुल्ला के जीजा और स्व० राजेश पायलट के नूरे चश्म ‘सचिन पायालट’।

११-मध्यप्रदेश के पूर्व उपमुख्यमंत्री सुभाष यादव के पुत्र ‘अरुण यादव’।

१२पूर्व केन्द्रीय मंत्री दलबीर सिंह की पुत्री ‘शैलजा’।

१३-पूर्व लोकसभाध्यक्ष पी०ए०संगमा की बेटी ‘अगाथा संगमा’।

१४-जी०के० मूपनार के पुत्र ‘ जी०के०वासन’।

१५-पूर्व रक्षा राज्य मंत्री रहे सी०पी०एन०सिंह के सुपुत्र ‘आर०पी०एन०सिंह

१६-उत्तरप्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहे जितेन्द्र प्रसाद के बेटे ‘जितिन प्रसाद’।

यह वे नाम हैं जो ‘टीम-मनमोहन’के बैट्स मैन हैं। अधिकांश ‘महाजन’ “नेहरू डायनेस्टी” के होनहार युवराज की युवापसंद हैं बिल्कुल ‘हिंदालियम के बर्तन, निखारदार चमकीले, सुंदर, कम खर्चीले’ की तर्ज पर। खैर यह सब तो उनका अंदरूनी मामला है। सामंतवाद से मुक्त २१वी सदी में गई जनता को तुलसी बाबा का दिया ‘सिली’ मंत्र दुहराना तो भुला ही देना चाहिये ‘कोऊ नृप होये हमें का हानीं, चेरी छोड़ न हुइहौं रानी’। शिट!

अब जब कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ हो तो ‘हाँथों में हाँथ लियेऽऽऽ, दिलवर को साथ लियेऽऽऽ,हर मौके पे रंग कोका कोला के संग’ गुनगुनानें से किसी को क्या प्राब्लम? आफ्टर आल ‘वी आर मेड़ फार ईच अदर समझेऽऽऽऽऽऽ?

मंगलवार, 26 मई 2009

भारत भाग्यविधाता सुनें !

भारतीय मनीषा ‘राजाः कालस्य कारणम्‌’ और ‘यथा राजा तथा प्रजा’ के सिद्धांत की ओर इंगित करती है। लोकतंत्र का वर्तमान स्वरूप कोई आदर्श उपस्थित नहीं करता, बल्कि गरीबी,बेरोजगारी,अत्याचार,भ्रष्टाचारादि को सॆक्युलरिज्म के छ्द्म कवच से ढकने का ही प्रयास करता अधिक दीखता है।

‘सोंने की चिड़िया’ बननें के लक्ष्य नें ‘जगद्‌गुरुत्व’ के चिन्तन ‘सर्वजन हिताय,सर्वजन सुखाय’ और ‘माता भूमि पुत्रोऽहम्‌ पृथिव्याम’ की चेतना को मानों अपहृत ही किया हुआ है। प्रकॄति के संतुलित उपयोग एवं पर्यावरण को स्थिर रखते हुए सब कैसे सुख और शान्ति से रहें, भारतीय चिन्तन की यही तो मौलिकता थी। निश्चय ही इस ज्ञान को विज्ञान-दर्शन का सुचिन्तित समर्थन भी था। विश्व को दिशा देंने के बजाये हम उस व्यवस्था के अनुगामी हो रहे है जिसका आधार न्याय संगत नहीं है।

प्रगति के इस पैशाचिक अट्टहास में मशीन.विज्ञान/तकनीकी,श्रम,बुद्धि एवं पूंजी या ‘पूंजीपंचायत’के एकाधिकारवादी सोंच ने संसाधनों के अन्यायपूर्ण शोषण को जहाँ स्वीकृति दी है वहीं माफियावद,नक्सलवाद,माओवाद,आतंकवाद जैसे संस्थानों को अपनें विनाश के लिए उत्पन्न भी किया है। आमजन प्रजा था, है और रहेगा।

माल्थस के जनसंख्या के ज्योमेट्रिकल प्रोग्रेशन की अन्तिम परणति, धर्मक्षेत्र को कुरुक्षेत्र बनाएगी, एडम स्मिथ के उपयोगिता के ह्रास के नियमानुसार आर्थिक मंदी, प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुन्ध दोहन से बार-बार आयेगी और डार्विन/आइंस्टीन प्रभृतियों का विज्ञानवाद अंततः हिरोशिमा दोहरायेगा, यही तो दीवार पर लिखे सन्देश थे, जिन्हें पढ़ और समझकर ‘गाँधी’ ने ‘ग्राम स्वराज्य’ और ‘ग्रामीण अर्थव्यवस्था’ के आदर्श को देश के सम्मुख रखा था। गाँधी से पूर्णतया सहमत न होते हुए भी कुछ मिलन-स्थल हैं जो स्वीकार्य हैं।

प्राकृतिक संसाधनों में देवत्व का आधान कर और पूज्य बनाकर जिस प्रकृति का सदियों से संरक्षण किया जा रहा था, उसे, अंधविश्वास बता आधुनिक विज्ञानवादियों नें जिस भाँति उपहास का पात्र बना दिया, उससे उनके ‘विज्ञान के दार्शनिक पक्ष’ से अनभिज्ञ होंने का ही परिचय मिलता है।

‘थ्री बाड़ी मोशन’ का ही मानवजाति से सम्बन्ध है, इस अधूरे विज्ञान के संवाहको को यह नहीं मालूम की सम्पूर्ण सौर परिवार न केवल एक इकाई के रूप में काम करता है वरन आवश्यकता पड़्नें पर अपने-अपनें प्रभावों का प्रयोग कर पृथ्वी का संरक्षण भी उन्हें आता है। पिण्ड़ो के मास,गति,आकर्षण,विकर्षण एवं विचलनादि का हम भले ही अध्ययन करते रहें, उन्हे तो इन सबका अवसरानुकूल प्रयोग भी आता है।

गाँवों में रहनें लायक स्थितियों एवं व्यवस्था का निर्माण करना,वृक्षों को उनका खोया सम्मान दिलाना, नदियों,जलाशयो,झीलों एवं कुओं को उनका गौरव लौटाना,कृषि,कुटीर उद्योग को स्थापित और सम्मानित करना, सौर उर्जा का अधिकाधिक प्रयोग करना, रासायनिक उर्वरकों को विदा कर पशुधन और जैविक खाद का प्रयोग कर धरती को माँ का खोया हुआ सम्मान वापिस दिलाना- जैसे कामॊ से ही हम पितरों के ऋण से उरिण हो सकते है और भावी पीढ़ी के आदर का पात्र भी।

‘पूंजीपंचायत’ के आधार स्तम्भ विज्ञानविद समाज को दिशा दिखाने वाले अग्रचेता ऋषियों की तरह नहीं दलालों जैसा व्यवहार कर रहे प्रतीत हो रहे हैं। संहारक हथियार ही नहीं संहारक तकनीकी के प्रयोग का प्रचालन जिस भाँति बढ़ रहा है उससे उनकी स्वायत्तता पर भी प्रश्नचिन्ह लगता है। ऎसे विज्ञानविदों के हाँथो क्या मानवता सुरक्षित है, यह हम सब को समय रहते सोंचना ही पड़ेगा?

प्रकृति अपना संरक्षण करना जानती है। करोड़ों की बलि लेकर भी वह अपना संरक्षण करेगी। उसे नालायक बेटों से अधिक अपनी भावी संतति की चिन्ता है। पृथ्वी को कामधेनु-वत्सला भी कहा गया है जैसे गाय अपनें ऊपर बैठे मच्छर मक्खियों को पूँछ के एक प्रहार से तितर-बितर कर देती है या पीड़ादायक ढ़ंग से दुहने वाले को लात के एक प्रहार से भू लुण्ठित कर देती है, वैसे ही एक झटके में धरती के बोझों को छिन्न-भिन्न कर देंना उसके लिए जरा भी कठिन नहीं है।

मोहासक्त हुए हम, समृद्धि की नाव में बैठ, सुविधा की नदी के प्रवाह में बहते हुये ५० वर्ष बाद रेत के किस बियाबान में टिकेगें, यह बता पाना अभी तो मुश्किल है। हाँ एक बात निश्चित है, नोंटों से भरे बैग वहाँ काम न आयेंगे। हजारों वर्ष पहले महर्षि वेदव्यास का शाश्वत उदघोष मानों फिर समय की आवश्यकता बन प्रस्तुत हो रहा हैः-

‘ऊर्ध्वबाहुर्विरोम्येष, न च कश्र्चिछृणोति में।
धर्म्मादर्थश्च कामश्च, स धर्म्मः किन्न सेवयते॥

शुक्रवार, 22 मई 2009

ज्योतिष और विज्ञान

प्रश्न उठता है कि विज्ञान क्या है? गणित की भाँति २+२=४ जैसी पूर्णता क्या विज्ञान में होती है? सारी गिनती-मिनती और पूर्ण तैयारी के बाद कई बार राकेट/विमान नष्ट हुए है और अन्तरिक्ष यात्री/विमान यात्री मारे गये हैं। प्रयोग की अवस्था में यह संभावनाएँ रहती हैं इससे इंकार नहीं किया जा सकता किन्तु जब सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक प्रक्रिया सम्पूर्ण हो चुकी हो उसके बाद इस प्रकार की दुर्घटनाऎं क्या इंगित करती हैं? इसका मात्र इतना ही अर्थ है कि मानवीय भूलों, तंत्रीय खामियों को सिरे से नहीं नकारा जा सकता। इससे भी ऊपर एक और तथ्य, कि जिस अन्तरिक्ष में/आकाश में राकेट/विमान भेजा जा रहा है वहाँ अचानक पूर्वानुमान के विपरीत वातावरणीय परिवर्तन प्रकट हो जाए। तात्पर्य यह कि पर्यवेक्षण, तर्क,सिद्धन्त,तकनीकी आदि के पुष्ट आधारों के बाद भी चूक होती है। इसी भाँति ज्योतिष, हजारों वर्ष प्राचीन, खगोलीय/ग्रहीय पर्यवेक्षण, परीक्षण के बाद ग्रहों के प्रभावों का परिणाम बतानें वाला विज्ञान है। सत्य तो यह है कि इस क्षेत्र में सैकड़ों वर्षों से कोई नई शोध ही नहीं हुयी है। पुरानें और जीर्ण-शीर्ण साधनों से किया जानें वाला फलित गलत क्यों होता है यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण तो यह है कि सही कैसे हो जाताहै? ज्योतिषी का भाग्य, जुगाड़ कभी-कभी काम कर जाता है।

फलित ज्योतिष के लिए आवश्यक है कि संहिता,गणित और फलित का विस्तृत ज्ञान होंना चाहिये। पंचाग दृग ज्योतिष पर बनाना पहली शर्त है। आज पंचांग बन रहे हैं लहरी एफेमरी जो नाटिकल एल्मनॅक पर आधारित है, के आँकड़ों पर। वह भी मध्यगतिमान (मीन) पर। वह भी एड्वाँस आँकड़ो पर। १००-१०० साल की एड्वाँस एफेमरीज़ आती हैं। कई पंचांग खरीदिये और फिर देखिये उन के अन्तर। कम्प्यूटर प्रोग्राम में चूकि डाटाबेस वही एफेमेरी/अल्मनॅक है अतः समान चूक वहाँ भी है। ग्रह आकाश में सदैव एक निश्चित गति से चलते हैं यह मुख्य आधार है।अन्तरिक्ष में, सौर धब्बो के अधिक बनने/ कम बननें या किसी केतु (कामेट) के संचरण या अन्य किसी अभिनव खगोलीय घटना वश ग्रहों की गति, भ्रमण स्थिति आदि पर विचलनकारी प्रभाव पड़्ते हैं, उनका आँकलन तभी संभव है जब दृग ज्योतिषीय आधार पर पंचांग निर्मित हों। पहले करण आदि शोधन कर आकाशीय ग्रह स्थिति से साम्य रखते हुए पंचांग बनते थे। अब वैसे शुद्ध पंचांग बनाना लोग भूलते जा रहे हैं।

एक-महत्वपूर्ण बिन्दू है निरयण और सायण गणना का। प्रारब्ध की व्याख्या निरयण से और जातक की वर्तमान स्थिति की गणना सायण से या इन दोंनों के तारतम्य से करनी चाहिये, यह विवेचना और शोध का विषय है। दोंनों का तारतम्य रखे बिना चूक होगी। दूसरा-बिन्दु है जन्म,प्रश्न या घटना के सही समय का, समय की शुद्धता पर संशय हो तो सिद्धान्तानुसार सही करे और कुछ प्रश्नों को जाँच कर, समय स्थिर करें। तीसरा-बिन्दु है स्थानीय समय का सही मापन। चौथा-बिन्दु है, लग्नादि की शुद्धता और सही ग्रह स्थिति का जन्मांक में निरूपण। मेदनीय ज्योतिष के विशिष्ट सिद्धान्त अलग हैं। कहनें का तात्पर्य यह कि लगभग ७० बिन्दुओं को ध्यान में रखकर कुण्ड़ली पर फलित करें। यह सब नहीं कर सकते हैं तो कृपाकर ज्योतिष को बदनाम न करें। पहले ज्योतिषी को राज्याश्रय प्राप्त होता था, घर चलानें की चिन्ता उसे नहीं सताती थी, इसीलिए मन रमा कर वह कार्य करता था। ११-२१-५१ में फलित जानने और बतानें वाले एक दूसरे को मूर्ख बना रहे हैं।अर्वाचीन काल में स्व० कृष्णमूर्ति जी नें सत्याचार और नाड़ी ग्रन्थों को आधार बना एक नई विधा के रूप में कृष्णमूर्ति पद्धति का पुनरुद्धार किया था जो घटना के सही समय निरूपण में अधिक फलदायी होती है।

शरद कोकास जी नें डा० जयन्त नार्ळीकर जी के नाम से धमकानें का अभद्र प्रयास किया है वह उचित नहीं है। मैंनें यद्यपि शौकिया ज्योतिष सीखी थी तो भी मै २० में से १८ कुण्ड़लियों में स्त्री-पुरुष में अन्तर बता दूँगा,शर्त यह कि मुझे १५ दिन का समय और २५०००रु० दिया जाए। साथ ही अत्यन्त गंभीरता और विनम्रता से मैं श्री नार्ळीकर को चुनौती देता हुँ कि अगले एक वर्ष में किस तिथि को भूकम्प आयेगा उसकी निश्चित जानकारी दें तो मै उन्हें २५००० रुपया पुरुष्कार स्वरूप भेंट करूँगा।यह दोनो शर्ते एक साथ मान्य होंगी। शरद जी नें एक आवश्यक प्रश्न जन्म समय को लेकर उठाया है। जन्म चाहे सामान्य हो या सीज़ेरियन से- गर्भनाल से विच्छेदन का समय ही जन्म का सही समय माना जायेगा।

ज्योतिष विज्ञान है यह आनें वाले वर्षों में विज्ञान ही सिद्ध करेगा। विज्ञान अभी युवा हो रहा है, इसीलिए गर्वोन्न्त बन रहा है और कुछ कम्युनिस्ट टाइप मूर्ख बिना नए आदर्श स्थापित किये पुरानें आदर्शों/परंपराओं/ज्ञान/विज्ञान को ध्वस्त करनें के लिए उसका गलत-सलत इस्तेमाल कर रहे हैं। हफ्तों तक मीडिया पर धूम-धड़ाके के साथ जीवंत प्रसारित किये गये ‘हेड्रान कोलाईड़र’ का क्या हुआ? अरबों-खरबों रुपये के खर्च पर पलनें वाला विज्ञान अभी तक यह भी नहीं जानता कि मंगल लाल क्यों दिखता है, शनि चित्र-विचित्र रंगों से युक्त क्यों है, बृहस्पति पीला क्यों दिखता है आदि और इनका पृथ्वी और पृथ्वी पर रहनें वालों पर क्या कोई प्रभाव पड़ता है? वह भी तब जब वह इसी सौरमण्डल के सदस्य हैं जिसमें हमारी पृथ्वी है। अनेकानेक प्रश्न हैं जिन्हें विज्ञान जानने का प्रयास कर रहा है और यह प्रयास जारी रहनें भी चाहिये, किन्तु पिछला सब व्यर्थ है यह घमण्ड वैज्ञानिकता के रेशनेल को नष्ट करता है।

अंत में एक बात ज्योतिषियों और ज्योतिष अनुरागियों से कहना चाहता हूँ, ज्योतिष को वेदों का अर्थात ज्ञान का नेत्र कहा गया है, अपनें तर्क रहित वक्तव्य से उसे गरिमा रहित मत कीजिये। ६७ तक जन्में व्यक्तियों को कष्ट झेलनें पड रहे होंगे जैसे वक्तव्य ज्योतिष के सिद्धान्त के ही नहीं तर्क के भी विपरीत है। ज्योतिष अत्यंत श्रमसाध्य कार्य है। सतत अध्यवसाय से ही पुष्ट होगी, जिसमें अधिकांश ज्योतिषी पिछड़ रहें है। ज्योतिषियों से मेरा एक प्रश्न है--पूर्वीय क्षितिज पर उदय होंने वाली राशि को ‘लग्न’कहते हैं। हर दो घण्टे में यह राशि बदलती रहती है। अर्थात जन्म, प्रश्न या घटना के समय जो राशि पूर्वी क्षितिज पर होती है वह महत्वपूर्ण होती है। “प्रश्न है कि यह पूर्वीय क्षितिज क्यों महत्वपूर्ण है?” समाधानपूर्ण उत्तर देने वाले को ५००रु० प्रोत्साहन स्वरूप प्राप्त होंगे।

शनिवार, 16 मई 2009

साम्यवाद को लाल सलाम

केरल तथा बंगाल के चुनावों में मिली करारी हार क्या अनपॆक्षित है? ‘मार्क्स’ सम्प्रदाय के लोग भले ही न मानें किन्तु बड़ी अम्मा बननें के चक्कर में उनका खुद का सूपड़ा साफ हो गया। अराष्ट्रवादी गतिविधियॊं को क्रान्ति बतानें वाले और झूठ को सच बनाने मॆ माहिर मार्क्स सम्प्रदाय के पैरों के नीचे से जमीन अनायास ही नहीं खिसकी है। प्रसिद्ध साम्यवादी विचारक,लेखिका और सामाजिक कार्यकर्त्री महाश्वेता देवी की मानें तो ३२ सालों में मार्क्स सम्प्रदाय के शासन नें बंगाल को न केवल अंधकार युग में पहुँचा दिया है वरन्‌ जहन्नुम बनानें में कोई कसर बाकी नहीं रखी है।

१४ मई को ‘रेड़िफ डाट काम की, इन्द्रानीराय मित्र को दिये साक्षात्कार में वह कहती हैं कि आँकड़े बताते हैं कि शिशु मृत्यु दर, महिलाओं के प्रति अपराध और वेश्यावृत्ति में बंगाल सब प्रान्तों की तुलना में अग्रणी रहा है। ५५००० से अधिक कल कारखानें बन्द हो चुके है, १५ लाख से अधिक कामगार बेरोजगार हो चुके है तथा लाखों नौजवान रोजगार के लिए श्रम विभाग के चक्कर काट रहे हैं। उनके पास एक लम्बी फेहरिस्त है सरकार की नाकामयाबी और अकर्मण्यता की। याद रखनें की बात है कि लगभग २० साल पहलें उन्होंने ही मार्क्सवादियॊ पर आरोप लगाया था कि, न्यूनतम मजदूरी दिये जानें की माँग करनें पर खुद ज्योति बसु सरकार नें अपनें ही कामरेड़्स को नक्सलवादी कहकर मरवाया था।

मार्क्सवादी सरकार बनवानें मे सक्रिय भूमिका निभानॆ और सरकार को समर्थन देंने वाली महाश्चेता जी कहती हैं कि ३२ बरसों में यह सरकार, जनविरोधी सरकार में कैसे तब्दील हो गई, इसकी वह खुद गवाह है। महाश्वेता जी यह भूल रही हैं कि दुनिया में जहाँ भी मार्क्स सम्प्रदाय की सरकार बनीं है, सभी जगह यह कहानी दुहरायी गयी है चाहे वह फिडेल कास्ट्रो का क्यूबा हो, सोवियतों वाला रूस हो या फिर चीन। ७०-७० साल बन्द कमरों में रखनें के बाद भी जरा सी खुली हवा मिलते ही, रूस को बिखरते सबनें देखा है। देखा है कथित वैज्ञानिक दर्शन पर आधारित उस व्यवस्था को, जिसके नेंताओं के भ्रष्टाचार की सड़ाँध के रूप में पूरी दुनिया में रूसी पूँजी ‘कैपिटल’ का प्रचार कर रही है। माओ की रंगीनियाँ भी अब किसी से छिपी नहीं हैं। स्विस बैकों में जमा धनवानों की सूची में भारतीय सेक्युलर शूरवीरों के बाद रूसियो और चीनियों का ही नम्बर है। रूस को संशोधनवादी कहनें वाले चीन नें, बढ़्ती आबादी और उसकी जरूरतो को ध्यान में रखकर, मार्क्स सम्प्रदाय की नीतियों से य़ूटर्न न लगाया होता तो अभी तक धूल चाट रहा होता। लेकिन इससे उनके विस्तारवादी स्वरूप पर कोई अन्तर नहीं पड़ा है। नेपाल और लंका में उनकी हरकतों से यह पूष्ट होता है।

प्रत्यक्ष में लोकतंत्र का हिमायती बनना और परोक्ष में नक्सल्वादी-माओवादी पालना और पहले ही से शोषित-पीड़ित जनता की आँड़ में खूनी सत्तापलट करानें का खेल अब किसी से छिपा नहीं है। दलितों,आदिवासियों, अल्पसंख्यकों को गलत सलत इतिहास और धर्म की व्याख्या कर भड़्कानें का खेल का खुलासा हो चुका है। अगले वर्ष के अन्त तक केरल और बंगाल में चुनाव होंने हैं। सरकारें बचाए रखनें के लिए इन्हीं सब धत कर्मों का इस्तेमाल किया जानें वाला है। क्या भारतीय जनता और केंन्द्र सरकार, इन खतरों को समझ इन धूर्तों को सहीजगह पहुँचा पायेगी? जनता तो शुरुआत कर चुकी है-केन्द्र में आरूढ़ होंने वाली सरकार क्या वैसा कर पायेगी, यह यक्ष प्रश्न है।

गुरुवार, 14 मई 2009

भारतीय राजनीति में विदेशी हस्तक्षेप : गम्भीर प्रश्न

समप्रभुता समपन्न देश की राजनीति में विदेशी हस्तक्षेप को स्वीकार नहीं किया जा सकता। कारण कोई भी हो। इस प्रकार के कृत्यों की न केवल भर्त्सना होंनी चाहिये वरन्‌ भविष्य में ऎसे कृत्य न हों इसका निश्चित उपाय भी करना चाहिये। प्रश्न यह उठता है कि दूसरे देश ऎसे प्रयास करनें की सोंच भी कैसे पाये? क्या हमारे राजनैतिक दल इसमें कोई भूमिका रखते हैं? मुझे इसमें विगत की कुछ घटनाएँ कारक के रूप में नजर आती हैं।

प्रारम्भ, विश्व व्यापर संघ का सदस्य होंनें, जिसके चलते विदेशी धन का प्रवाह एशियाई देशों विशेषकर चीन एवं भारत में प्रचुर मात्रा में हुआ, से होता है। धन ही एकमात्र कारण नहीं था। भारत एक बड़ी मण्ड़ी भी साबित हो रहा था। जब हम विदेशी धन एवं उत्पाद का स्वागत कर रहे हों, तब बाजार और अर्थ व्यवस्था में निवेशकों की चिन्ताओं को दरकिनार नहीं कर सकते। विशेषकर विदेशी निवेशकों एवं व्यापरियों को जब यह लग रहा हो कि सहयोगी दल विशेषकर साम्यवादी,जिनके समर्थन से श्री मनमोहन सिंह की सरकार चल रही थी, उनकी गतिविधियाँ खुले व्यापर की परिकल्पना के विरुद्ध थीं। परिणामतः भारत से व्यापारिक क्षेत्र में खुलेपन की जैसी आशा की जा रही थी वह अवरुद्ध हुआ। आइये देखते हैं कि साम्यवादी ऎसा क्या कर रहे थे जिसके चलते ऎसी धारणा बनीं।

साम्यवादियों द्वारा SEZ नीति पर जिस प्रकार हंगामा किया गया और चीन से (SEZमूलतः चीन की परिकल्पना है) समझकर ( अनुमति लेकर) ही यह योजना आगे बढ़ेगी ऎसा सन्देश दिया गया। राजरहाट,नंदीग्राम आदि भी उसी प्रवृत्ति को दर्शाते रहे हैं। परमाणु समझौता तो अभी भी संदेह में है।हथियारों के विभन्न सौदे हों या इज़राइल से सामरिक समझौता या फिर आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष की बात, सभी जगह साम्यवादियों का हस्तक्षेप जारी रहा। साम्यवादियों द्वारा लोकतांत्रिक मुखौटा लगाकर नक्सलवादियों,माओवादियों तथा अल्पसंख्यक अतिवादियों को हरावल दस्ते के रूप में इस्तेमाल करना भी अब किसी से छुपा नहीं है, यह भी चिन्ता का कारण रहा। विशेषकर नेपाल की हाल के घटनाक्रम के बाद, यह चिन्ता और बढ़ी है। २मई २००४ में बेल्जियम में आयोजित साम्यवादियों के अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन में श्री ‘प्रचण्ड’ के नए सिद्धान्त को समझनें की आवश्यकता हैः-

Paper Presented By The Anti-Imperialist Revolutionary Forum Nepal At The International Communist Seminar Organised By Workers Party Of Belgium (PTB) On 2-4 May 2004.

“Marxism-Leninism-Maoism is the basic theory and Prachanda Path is guiding ideas. In the Nepalese context, Marxism-Leninism-Maoism becomes basic principal, theory and philosophy for the revolution and Prachanda Path serves and guiding ideas or principal. It is just as happened in the Russian Revolution that Marxism was the basic theory and Lenin’s ideas were guiding principal and Marxism-Leninism was the basic theory and ideas of Mao Tsetung were the guiding principal in the context of Great Chinese Revolution.”
&
“Here, it would be important to note that the particularity of the ideas of Chairman Prachanda deserves generality in the context of world revolution. Chairman Prachanda has laid a general foundation to pave a way for the New Democratic and Socialist Revolution in the 21st century and thus to advance to Communism synthesizing the five years practise of People’s War in the second historic Conference of the Party, held on 2001, he documented, “21st century shall be the century of people's wars, and the triumph of the world socialist system. Apart from this, it also shows that there has been a significant change in the prevailing concept of model of revolution after 1980. Today the fusion of the strategies of armed insurrection and protracted people's war into one another has been essential. Without doing so, a genuine revolution seems almost impossible in any country.”

यही नहीं समय समय पर प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह खुले तौर पर साम्यवादियों पर ब्लैकमेल करनें तथा रोड़े अटकानें की नीति की शिकायत भी करते रहॆ। यह अलग बात है कि श्रीमती सोनिया माइनों गांधी युवराज राहुल गांधी( चुनाव आयोग में दाखिल कैम्ब्रिज की डिग्री के अनुसार राल विंसी) के सयानें होंने तक उनसे ‘नाइटवाचमैन’ की भूमिका करवानें को ज्यादा आवश्यक मान,सब कुछ सहकर भी सरकार चलानें को बाध्य करती रहीं। भारतीय अर्थ व्यवस्था पर इसके प्रभावों एवं मनमोहन सिंह की भूमिका को रेखाँकित करते हुए १मई २००९ के ‘वालस्ट्रीट जरनल’ (http://online.wsj.com/article/SB124109098695372847.html ) में राज़ीन सैली का आलेख पढ़कर इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। कुछ महत्वपूर्ण अंश इस प्रकार हैः-

‘This explanation just does not wash. Mr. Singh has impeccable academic credentials and is by all accounts incorruptible. He deserves credit for his performance as finance minister in the early and mid 1990s—though at least as much credit should go to the then Prime Minister Narasimha Rao, who had to take the tough decisions. But Mr. Singh has proved a hopeless decision maker as prime minister.’

‘He has lacked the political instinct and moral courage to take tough decisions, hiding behind the fig leaf of Mrs. Gandhi and the troublesome left-wing parties that propped up the government. The latter withdrew their support in mid-2008, and the government won a vote of no-confidence, yet—not surprisingly—market reforms did not materialize. Sadly, Mr. Singh proves the rule that academics should generally be "on tap" but not "on top".’

&

‘The whole reform program depends crucially on the prime minister himself. Mr. Rao and A.B. Vajpayee proved their mettle, despite heavy political constraints. Mr. Singh has failed; he should bear much of the blame. That blame must also be shared with the other sweet-talking, weathervane-members of his dream team. The Congress party does not deserve to be re-elected, and the dream team does not deserve to continue in office.’

‘The question is whether an alternative Bharatiya Janata Party-led government would do any better. Yes, if it has a decisive leader with a core of able reformers. No, if its leader follows the dictates of short-term opportunism and inevitably messy coalition politics. The danger is that the election will create an even more fractured political landscape, with an even weaker, more unwieldy governing coalition. The nightmare scenario is of a new Union government held hostage by surging caste-based parties in north India and their corrupt leaders. That would scotch further major market reforms and deepen India's institutional malaise.’

कल टेलीविजन पर श्री सीताराम येचुरी ‘यू०एस० चार्ज’डि अफेयर्स मि०पीटर बर्लीघ’ के श्री लालकृष्ण आडवानी, श्री चन्द्रबाबू नायडू, श्री चिरंजीवी, श्री चद्रशेखर राव तथा अन्य नेताओं से मिलनें पर आपत्ति कर व्यक्त कर रहे थे। श्री सीताराम येचुरी और उनका साम्प्रदायिक ‘मार्क्सपरिवार’ जो रुस-चीन के इशारे पर उट्ठक-बैठक करता है खूद अपनें गिरहबान में झाँक कर बताएँगा कि गरीब/शोषित की बात करनें के लिए उन्हें रूस-चीन की जरूरत क्यों पड़ती है? नेपाल समेत सम्पूर्ण भारत में नक्सलवादी/माओवादी खूँरेजों को धन और हथियार कौन मुहैय्या करवाता है? प्रचण्ड की तरह करात-थीसिस कौन और क्यों बनवा रहा है? भारत को सामरिक तौर पर चारो तरफ से कौन घेरे में ले रहा है? यह सब किसकी सह पर हो रहा है और उसमें ‘मार्क्सपरिवार’ की क्या भूमिका है, कौन बताएगा? अगर ‘मार्क्सपरिवार’ अपनें दुष्कर्मों को जायज ठहराता है तो विदेशी ‘महाजन’ अपनें धन और हितों की रक्षा के लिए अगर प्रयास करता है तो उसे किस सिद्धान्त पर गलत ठहराया जासकता है? दीवाल पर लिखी जा रही इबारत साफ पढ़नें में आरही है‘‘एक ऎसी सरकार जो साम्यवादियों की बैसाखी पर न हो” यही उनका ध्येय दिखता है। सरकार काँग्रेस की बनें या भाजपा की इस से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है। यह एक गंभीर स्थिति है जिसके दूरगामी ऎतिहासिक परिणाम हो सकते हैं। इस पाप कर्म के लिए भावी इतिहास में साम्यवादी याद रखे जानें चाहिये।

शुक्रवार, 8 मई 2009

आयुर्वेदःएक सम्पूर्ण चिकित्सा पद्धति

सड़क के किनारे ऊँटगाड़ी या टेन्ट लगा घुमन्तू कबीले के लोग जंगल-पहाड़-गाँव नापते बहुधा हमारे आप के शहर में अधिकांशतः गुप्त या विषम रोगों के डाक्टर बन सपरिवार प्रकट हो जाते हैं। इसी यायावरी के चलते जंगल-विज़न में साधू सन्तों की सेवा से उन्हें कृपावश कभी कभी अचूक नुस्खे और जड़ी बूटियों को पहचाननें की समझ भी मिल जाती थी। आज के समय में ऎसे नीम-हकीमों पर भरोसा नहीं किया जा सकता जहाँ यह एक तथ्य है वहीं सामान्य और गरीब जनता तक चिकित्सा पहुँचे इस पर भी गंभीर विचार की आवश्यकता है। आम आदमी की चिकित्सा को सरल बनानें के लिए लगभग १०० वर्ष पहले एक किताब लिखी गयी थी ‘इलाज़ुल गुरबा’। आयुर्वेद एवं यूनानी की अनुभूत एवं सर्व सुलभ सस्ती औषधियों पर अधारित उपयोगी पुस्तक है। वस्तुतः किसी भी चिकित्सा पद्धति के ‘निदान-औषधि-अनुपात एवं अनुपान’ यह चार आवश्यक अंग हैं किन्तु उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है औषधि का निर्माण।

आजकल आयुर्वैदिक औषधियों को बनानें में जिन आधुनिक संसाधनों का प्रयोग, भारी माँग के चलते हो रहा है वह ठीक नहीं है। आयुर्वैदिक औषधियाँ तभी प्रभावी होंगी जब वह पारंपरिक ढ़ंग से तैयार होंगी। अधिक माँग की पूर्ति के लिए कुछ वर्ष पहले कन्नौज के ‘गुलाबजल’ उत्पादकों नें मिट्टी के परंपरागत भभकों के बजाय स्टील के, गैस से चलनें वाले भभकों का इस्तेमाल किया था। गुलाबजल का आसवन तो जल्दी हुआ लेकिन उसकी शीतलता प्रदायक मदिर सुगन्ध जाती रही। परिणामतः खासे नुक्सान के बाद पुरानी व्यवस्था पर चलना पड़ा।

एक शब्द है ‘परिपाक’। परिपक्व, पचना, पचाना आदि। क्या अर्थ है? सामान्यतः हम आहार पके हुए अन्नादि का ही लेते हैं। फिर यह उदरस्थ आहार तुरन्त क्यों नहीं हजम हो जाता? इस आहार को उदर में पचानें, परिपाक होनें में सहायक होती है ‘जठराग्नि’। चारों वेदों का प्रारम्भ अग्नि या ऊर्जा की प्रशस्ति -‘अग्निमीळे पुरोहितम्‌’ आदि से ही प्रारम्भ होता है। ‘एक एव अग्नि बहुधा समिद्धः’- जिस प्रकार एक ही अग्नि ८ रूपों मे विभक्त हो पिण्ड़ से ब्रह्माण्ड़ तक को नियंत्रित करती है वैसे ही एक ही अग्नि मनुष्य शरीर में १८ रूपों (भागों) मे व्याप्त हो अलग अलग अंगों एवं कार्यों को नियंत्रित एवं संचालित करती है। उसी के एक रूप को ‘जठराग्नि’ कहा जाता है जो उदरस्थ आहार का परिपाक कर खाये हुए पदार्थ को रस,रक्त,अस्रक,माँस,मेदा,अस्थि,वीर्य एवं ओज में परावर्तित करती है। यह अग्नि ही है जिससे शरीर में एक प्रकार की हरारत,गर्मी (९८०) रहती है। इसी के मन्द होंने पर चिकित्सक कहते हैं कि ‘मंदाग्नि-रोग’ हो गया है या ड़ाइजेशन वीक हो गया है। उसी (अग्नि) का सूक्ष्मतम वायव्य रूप ‘हंस’ प्राण, शिरोकपाल में रहता है जिसको निष्क्रामित करनें के लिए मृतक के कपाल का भेदन किया जाता है। भलीभाँति निष्क्रमित (release) न होंने पर मृतक प्रेत आदि योंनि में जाता है, ऎसी मान्यता शास्त्रों में दी गयी है।

उक्त विस्तृत विवरण का उद्देश्य इतना है कि औषधि निर्माण की प्रक्रिया में औषधियों के परिपाक होंने,सम्मिलित होंने,मिश्रित होंने के लिए आवश्यक है कि शास्त्रोक्त प्रक्रिया ही अपनायी जाए तभी वह लाभप्रद होंगी। यह अनायास नहीं है कि कहीं कण्डे की,कहीं इमली की लकड़ी कहीं शमी आदि की लकड़ी की अग्नि अलग-अलग औषधि को पकानें और कहीं मिट्टी, काष्ठ तो कहीं ताम्रादि के पात्र प्रयोग किय जाते थे। आवश्यकता पारम्परिक तरीकों को कारण सहित जाननें और तद्‌नुरुप नये तरीके इज़ाद करनें की है।

आयुर्वेद की अभिकल्पना मात्र रोग से तात्कालिक मुक्ति की नहीं बल्कि रोग को समूल-जड़ से समाप्त करनें की रही है। आयुर्वैदिक चिकित्सा के कम असर दायक होने में हमारा आहार विहार भी एक बड़ा कारण है। आज अधिकांश अन्न का उत्पादान य़ूरिया तथा अन्यान्य रासायनिक खादों पर आधारित है जो शरीर के लिए उपयुक्त नहीं है। संभवतः चना, यव और धान आदि कुछ ही अन्न हैं जो रासायनिक खादों से बचे हुए है। वैद्यों की प्रिय ‘मूँग’ आज समझदार वैद्य इसीलिए कम इस्तेमाल कर रहे है। इंजेक्शन लगा बड़ी-बड़ी लौकी तैयार हो रही है। दूध की जगह यूरिया का घोल मिल रहा है। आधुनिक विज्ञान जनवादी होते-होते कितना जनघाती हो गया है? तात्पर्य यह कि या तो हम आयुर्वैदिक औषधियों की मात्रा तत्काल लाभ के लिए बढ़ाए (यह रोगी की शारीरिक स्थिति पर निर्भर करेगा) या फिर रोगी का भोजन यूरिया मुक्त, कम से कम तब तक तो अवश्य हो जब तक वह स्वास्थ्य लाभ नहीं कर लेता।

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर कहते हैः ‘जो शिक्षा बीस-पच्चीस साल भी ब्रह्मचारी न रहनें दे, उस शिक्षा को कूड़े-कर्कट के ढ़ेर की तरह आग लगा देना ही अच्छा’। यह असंतुलित विहार ही है जिसके चलते मधुमेह जैसे रोग दिन प्रतिदिन बढ़्ते चले जा रहे है। मधुमेह वस्तुतः रोग नहीं घुन है जो शरीर को चाटता रहता है परिणामतः कालान्त्तर में य़क्षमा,कारबंकल,आई हैमरेज, ब्लड़्प्रेसर एवं हृदय रोग हो जाते है। ३० वर्ष के आस-पास जिसे मधुमेह होता है उसका साठ साल तक जिन्दा रहना मुश्किल हो जाता है। असंयमित और श्रम रहित जीवन ही मूल कारण है।

आयुर्वेद मात्र तीन शब्दों में व्याख्यायित किया गया हैः- ‘हित भुक’-‘ऋतु भुक’-‘मित भुक’। स्वयं (वात,पित्त,कफ़) की प्रकृति जानकर तदनुकूल जो हित कर है और जो उस ऋतु में उपलब्ध हो तथा जितनी भूख हो उससे कम खाय़ेँ और स्वस्थ्य रहें। धनवंतरि,चरक शुश्रुत आदि की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। आयुर्वेद एक समग्र एवं पूर्ण पद्धति है जिसका उद्देश्य जनता जनार्दन को तन मन से स्वस्थ्य एवं उपयोगी मनुष्य बनाना रहा है। आधुनिक चिकित्सा पद्धति कार्य का उपचार करती है न कि कारण का और इसी कारण वह अभी भी प्रायोगिक अवस्था में है और आगे भी रहेगी।

बुधवार, 6 मई 2009

॥ स्मृतिशेष कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर ॥

७ मई १८६१-७अगस्त १९४१
श्रद्धांजलि
नमन बंगाल की उस पवित्र भूमि को जिसनें रवीन्द्रनाथ जैसा तपस्वी संत
उत्पन्न कर न केवल बंगाल वरन्‌ संपूर्ण देश को गौरवान्वित किया।
साम्यवादियों के कुचक्र में फंसे बंगाल निवासियों को कविगुरु की यह कविता
इस लिए समर्पित कि शायद उन्हें अपना गौरव और कर्तव्य याद आ जायेः

Where The Mind is Without Fear


Where the mind is without fear and the head is held high
Where knowledge is free
Where the world has not been broken up into fragments
By narrow domestic walls
Where words come out from the depth of truth
Where tireless striving stretches its arms towards perfection
Where the clear stream of reason has not lost its way
Into the dreary desert sand of dead habit
Where the mind is led forward by thee
Into ever-widening thought and action
Into that heaven of freedom, my Father, let my country awake


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