रविवार, 12 अक्तूबर 2008

उतिष्ठ जाग्रत वरान्निबोधत

उनके लिए जिनके हृदय में राष्ट्र धड़कता है प्राण बनके। उनके लिए जिनके लिए सत्ता और राजनीति से बढकर धर्म दर्शन संस्कृति और सभ्यता का अर्थ अपनी विशिष्ट पहचान है।उनके लिए जो सनातन वैदिक आर्य धर्म जिसे अब अब हिन्दू नाम से जाना जाता है और जिन्हें गर्व है अपनीं इस पहचान पर।उनके लिए जो सत्ता को साध्य नहीं साधन मानते हैं और राष्ट्र के किए जीना ही नहीं मरना भी जानते हैं।उनके लिए जो मानते ही नहीं जानते भी हैं कि आत्म धर्म तभी बचेगा जब शरीर रहेगा एवं राष्ट्र रुपी शरीर के लिए उतपन्न आन्तरिक और वाह्य संकटों से वे अवगत हैं। अतः‘उतिष्ठ जाग्रत वरान्निबोधत’_
भारत में
राज्याधीश
पहले हूणों को लिए आए
मै कुछ नहीं बोला
क्योंकि मै हूण नहीं था।
वे यवनों को लिए आए
मै कुछ नहीं बोला
क्योंकि मै यवन नहीं था।
वे तुर्कों को लिए आए
मै कुछ नहीं बोला
क्योंकि मै तुर्क नहीं था।
वे मुगलों को लिए आए
मै कुछ नहीं बोला
क्योंकि मै मुगल नहीं था।
वे अंग्रेजों को लिए आए
मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं अंग्रेज नहीं था।
वे मात्र सत्ता के प्रतीक
कांगेसियों को लिए आए
मै कुछ नहीं बोला
क्योंकि मै शासित प्रजा
कांग्रेसी नहीं था।
वे धर्मनिरपेक्षों को लिए आए
मै कुछ नहीं बोला
क्योंकि मै साक्षात सर्वधर्म समभाव
छ्द्म धर्मनिरपेक्षी नहीं था।
फिर वे ‘मेरे’ लिए आए
तब कोई कुछ नहीं बोला
क्योंकि तब हिन्दुस्तान में
कोई हिन्दू नहीं बचा था।
‘धर्मों रक्षित रक्षताः’

13 टिप्पणियाँ:

All Mighty Spiritual Society ने कहा…

अपने बहुत सुंदर बात कही है सुमंत जी, ये सब हुआ क्यो की हमने कहा "अतिथि देवो भवः" क्षमा वीरस्य भुश्नाम और इन दो उक्तियो ने देश को गुलाम कर दिया, अब शक्ति का उद्घोष कर देना होगा एक मंच पर आकर!

अभय तिवारी ने कहा…

कात्यायन जी, ऐसी ही कविता मैं अपने ब्लॉग पर पिछले वर्ष डाल चुका हूँ.. देखिये - http://nirmal-anand.blogspot.com/2007/11/blog-post_28.html

सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ ने कहा…

अभय जी,आप ठीक कह रहे हैं। कविता कर्म मेरे वश का नहीं है।८०-८२ में किसी पत्रिका में यह कविता पढ़ी थी उसी में काँट छाँट कर अपनी बात कहनें की चेष्टा की थी।

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

यह पोस्ट तो मेरे जैसे लोनर (इण्ट्रोवर्ट) को भी कसमसा देती है।

(और यह वर्ड-वेरीफिकेशन यदि हटा सकें तो)

अजित वडनेरकर ने कहा…

आखिरकार आपने ब्लाग बना ही लिया..सुंदर...
आते रहेंगे यहां ....

निर्मल ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
निर्मल ने कहा…

chaar hazaar kitaabon ke baad bhii apnii baat kahne ke lie kisii aur kii kavitaa se nakal karnii padii?
uskii soochnaa bhii nahii dii ? yahii naitiktaa hai maharaaj? aapke jaise vyakti ke lie sharmnaak hai.

सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ ने कहा…

भाई वो चार हजार किताबें मैने नहीं लिखीं।उन से प्रेरणा अवश्य ली है वैसे ही जैसे २५ वर्ष पहले पढ़ी हुई उस कविता से भी।मेरी मान्यता तो यह है कि मौलिक जैसा कुछ होता नहीं है प्रत्येक लिखा या कहा जा रहा शब्द कहीं न कहीं से प्रेरित होता है।

संजीव कुमार सिन्‍हा ने कहा…

चिट्ठाजगत में आपका अभिनंदन हैं।

बेनामी ने कहा…

सुन्दर बात- प्रत्येक लिखा या कहा जा रहा शब्द कहीं न कहीं से प्रेरित होता है।

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } ने कहा…

aap ki kavita sundertm .

drdhabhai ने कहा…

आपकी कविता किसी के हृदय को हिला नहीं दे तो वो व्यक्ति हृदय हीन ही होगा..शब्द नहीं मेरे पास आपके लेखन की और आपकी प्रशंसा मैं

अनुनाद सिंह ने कहा…

'धर्मो रक्षति रक्षितः' ( रक्षित होने पर धर्म रक्षा करता है; अर्थात धर्म की रक्षा करने से धर्म भी रक्षा करता है )

अति सुन्दर्!


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