बुधवार, 31 दिसंबर 2008

सेक्सी सेन्सेक्स

ड़ा० चाहे वह शरीर विज्ञान के हों या अर्थ के भांति-भांति की सलाह दिया करते हैं। चिकित्सक जहाँ सुरक्षित ‘सेक्स’को सेहत के लिए मुफ़ीद बताते हैं तो अर्थशास्त्री ‘सेन्सेक्स’के साथ सुरक्षित ‘सेक्स’ जेब के लिए। अब यह सेन्सुअलिटी होती बड़ी आकर्षक है,विश्वामित्र तक को नहीं छोड़ा ! कहते हैं यह ‘सेन’ लोगों के लिए है किन्तु साथ ही कहते है कि कच्ची उमर के लड़्के जैसे लड़्कियों को स्कूल तक पहुँचानें जाते है वैसे ही भोर होनें से लेकर रात में सोंने तक ‘ट्रैकिंग’करते रहो। पहले ड़ाओजोंस फिर नास्ड़ेक्स फिर निक्की फिर एन.एस.ई.फिर बी.एस.ई. और न जानें कौन कौन सी गलियों में घूमते रहो, ‘फुरसतिया’ जी की अदा में कहें तो ‘बोले तो ख़यालों मे प्रेमिका के साथ बतियानें जइसा कुछ है’। हाँ यह गाना जरूर याद कर लीजिए वक्त पड़नें पर काम आयेगा‘‘ये जो मोहब्बत है,ये उनका है काम,महबूब का जो बस लेते हुए नाम,मर जाँए मिट जाँए हों जाँए बदनाम.........”।

पहिले जैसे फिल्म,उपन्यास या कार्टून का हीरो (हमरे पिता जी के जमानें के हीरोअन मा देवानंद यहि मा फेमस हुई गये) लड़्कियों के स्कुल के आसपास कोई बिजली का खम्भा तलाश कर और हाथ में कोई मैगज़ीन या अखबार चाँप कर खम्भस्थ हो जाता था कि कब उनकी चहेती आये या निकले तो दर्शियाँए या पिछिआँये। तो वैसे ही भुराहरे से रिमोट हाथ में थाम टी०वी० में आँख गड़ाये बैठे हैं। कभी एन०डी०टी०वी० प्रफिट तो कभी सी०एन०बी०सी०और न जानें कौन कौन से चैनल पलट रहे हैं पूँछो काहे तो मुशकिल से बक्कुर फूटेगा कि मार्केट असेस कर रहे हैं। ९.३० बजते ही ब्रोकर से फुनियाना चालू १०० ले लो २०० बेंच दो।कुछ बीमार तो स्टाक एक्सचेन्ज़ की बिल्ड़िग के बाहर लटके बोर्ड़ को ही ताका करते हैं,अन्दर जो भरती हैं वो तो हैं ही।

मेरे एक मित्र हैं चार मोबाइल साथ लेकर चलते हैं,एक बार ७-८ घंटे साथ रहना हुआ।थोड़ी-थोड़ी देर में वह कमरे से बाहर चले जाते थे तो मैनें टोंका कि भाई शुगर टेस्ट कराओ तो गुर्रा कर बोले क्यों? मैने कहा कि हर १०-१५ मिनट में लघुशंका के लिए जाते हो,इससे लगता है कि कुछ शुगर ऊगर की बीमारी हो गयी है। रावण की तरह टहाका लगाते हुए कहा कि यार!बिल्कुल घामड़हे हो,बुरा मानते हुए मैंनें पूँछा क्यों? अबे अब तक २०,०००हजार कमा चुका हूँ तू गिनता रहे लघुशंका। लेकिन मार्च के बाद से जब से मुट्ठी में बन्द रेत की तरह शेयर मार्केट फिसल रहा है, उन्हें वास्तव में न केवल शुगर होगयी है वरन्‌ ब्लड़ प्रेशर भी बीच बीच में जोर मारनें लगता है।डा०कहते हैं कि ब्लड़्प्रेशर की दवा रेगुलर खानीं पड़ेगी,मित्र का कहना है कि जब ‘सेन्सेक्स’ का ब्लड़प्रेशर हाई होगा तभी उनका प्रेशर लो होगा। शुगर होंने की बात को बकवास बताते हुए वह कहते हैं कि अब जब ‘चीनी’ भी ‘कम’ मीठी लगती है तो शुगर कहाँ से हो जायेगी?

उन मित्र की यह गत देख मुझे मेरा ‘मैं’ याद आया और मैं सोंचनें लगा.......।धन से धन बनानें की विधा न तो उचित है और न ही तर्क संगत। धन की अतिव्याप्ति व्यक्ति को जहाँ एक ओर असुरक्षित बनाती है वहीं भ्रष्टाचरण के लिए उकसाती है और अन्ततः मानवता से दूर ले जाती है। पूंजी,बुद्धि एवं यन्त्रों के माध्यम से प्राकृतिक संसाधनों के सीमित भंण्डारों का अन्धाधुन्ध दोहन और तद्‍जन्य धन सम्पत्ति पर एकाधिकार जहाँ मनुष्य,समाज और देशों के मध्य कलह और युद्धों का कारण बनता है वहीं दूसरी ओर स्वयं और सन्ततियों को काहिल और पौरुषहीन भी बना देता है। धन से धन बनानें मे माहिर पहले ‘प्राड्क्ट’ बेंचते हैं फिर ‘मशीन’ और अन्ततः ‘फार्मूले’ और यह कार्य भी वह पूँजी के बल पर दूसरों से करवाते हैं परिणामतः स्वयं की सन्ततियाँ श्रमहीन,भयग्रस्त,रोगग्रस्त,षणयन्त्रकारी और दूष्ट हो जाती हैं और समस्त अर्जित गौरव को नष्ट कर दरिद्रता को प्राप्त होती हैं। मध्यकाल में सोनें की चिड़िया कहा जानें वाला भारत और वर्तमान में अमेरिका सहित समस्त यूरोपियन देश क्या उस अभिशाप से ग्रस्त हुए नहीं दिख रहे हैं?

जब जब पूंजीवाद धूल धूसरित हुआ दिखायी देगा तो उसका जुड़्वाँ भाई समाजवाद अपनीं पीठ थपथपानें लगेगा कि देखो मैं कह न रहा था,कि ये शोषण का मार्ग है और अन्ततः परास्त होगा। बहुत लोग मार्क्स और उनकी ‘कैपिटल’की दुन्दुभी बजानें लगते हैं। जबकि श्रम,श्रमिक एवं श्रम के वाज़िब मूल्य का उद्योग और पूंजी से चोली दामन का समबन्ध है। पूंजी के बिना श्रम और श्रम के बिना पूंजी का न कोई मूल्य होता है और न ही अस्तित्व। रूस के पतन और चीन के साम्यवाद से ‘यूटर्न’ से साम्यवाद की असलियत पहिले ही सामनें आचुकी थी,अब अमेरिका के मुँहभरा गिरनें के बाद पूंजीवाद की वास्तविकता भी सामनें है। पूंजीवाद जहाँ धनार्जन की निर्बाध छूट दे मनुष्य को अपराधी बनाता है वहीं मानव-श्रम को आधार बना राज्य मानव की स्वतंत्रता का अपहरण करनें का अपराधी बनता है। श्रम का समबन्ध शरीर से है,परिश्रम का समबन्ध बुद्धि से है,इनका कुविचारित प्रयोग का हश्र भी हमारे सामनें है। किन्तु इसका निदान है--भारतीय चिन्तनधारा नें एक अभिनव मार्ग दिखाया था आश्रम व्यवस्था का,जो व्यष्टि के साथ समष्टि के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करनें का मार्ग है। किन्तु अपनें ग्रामीण परिवेशी बाप को बाप कहनें से बचनें वाले तथाकथित बुद्धिजीवी कभी इस पर ध्यान देंगे? मुशकिल दीखता है।

बड़े बुज़ुर्गों की वैसे तो अनुभवजन्य ‘राय’ है कि बिना माँगे सलाह और भीख देना दोनों ही खतरनाक है,लेकिन अब ‘चतुर’ चुप कैसे रहें? रिटायर्ड़ हो चुके या होंने वाले लोगों को तो अर्जित पूँजी बचाये रखना ही ज्यादा श्रेयस्कर है,क्योंकि एक उम्र के बाद यह पूँजी ज़ायज तरीके से एकत्रित करना असम्भव तो नहीं किन्तु सामान्यतः कठिन कार्य है। हर काम की अलग अलग उम्र होती है। अब जो ‘न उम्र की सीमा हो न जन्म का हो बन्धन’के फलसफे को मानते हैं उन वीरों की गति तो वही जानें। जैसे किसी उद्योग या व्यापार के लिए कम या ज्यादा पूंजी दोनों ही नुकसानदेह होती है वैसे ही जीवन की आवश्यकता के लिए जो सामान्यतः धन का संग्रह होंना चाहिये,उतनें पर ही संतोष करनें की आदत ड़ालनी चाहिये। धन का अतिरेक अपनें साथ कुछ अन्तरव्याप्त (इन्हेरेन्ट) व्याधियाँ भी लाता है यह ध्यान में रखा जाना फायदेमंद ही होता है। यदि हमनें अपनें पारिवारिक दायित्वों का समय पर निर्वहन कर लिया है अर्थात पुत्र-पुत्रियों को अच्छी शिक्षा-दीक्षा दे व्यवस्थित कर दिया है और हारी बीमारी समेत सामान्य जीवन चलानें की समुचित व्यवस्था है तो बस अर्थ से समबन्धित व्यवस्था की इतनी ही तो जीवन में भूमिका है। बाबा-दादा एक कहावत कहते थे ‘पूत कपूत तो क्यों धन संचय,पूत सपूत तो क्यों धन संचय’?

फिर भी कनफ्यूजियानें पर “गिरधरकविराय” की यह कुण्ड़्ली मन ही मन दुहरा लेता हूँ-

‘बिना बिचारे जो करे, सो पाछे पछिताये।
काम बिगारो आपनों, जग में होत हँसाये।
जग में होत हँसाये, चित्त में चैन न आवै।
खान-पान-सम्मान, रागरंग मनहि न भावै।
कह गिरिधरकविराय,दुःखकछु टरत न टारै।
भटकतहै मनमाँहि, कियो जो बिना बिचारे॥

2 टिप्पणियाँ:

अजित वडनेरकर ने कहा…

नया साल मंगलमय हो आपके लिए।
सेन्सेक्स पर काफी नज़र है आपकी....

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

बड़ी रस मय पोस्ट है! लगता है आप पूरी तरह "सेन" हैं - सेक्स रहित। पर लौण्डे-लपाड़ों को पूरी तन्मयता से ऑब्जर्व किये हुये हैं।
बाकी सही है - सेनसेक्स में या सेक्स में विनिवेश अपना रिस्क फैक्टर देख कर करना चाहिये। वानप्रस्थाश्रम में गाढ़े की कमाई गंवाना ठीक नहीं!


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